SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 219
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १९८ अमितगतिविरचिता अभाणिषुस्ततो विप्राः सुबुद्धे गुरुणा विना । कारणेन त्वयाग्राहि तपः केने स्वयं वद ॥६१ खगाङ्गभूरुवाचातः कथयामि परं द्विजाः । बिभेमि धूयतां स्पष्टं तथा हि निगदामि वः ॥६२ हरिनामाभवन्मन्त्री चम्पायां गुणवर्मणः। एकाकिना शिला दृष्टा तरन्ती तेन वारिणि ॥६३ आश्चर्ये कथिते तत्र राज्ञासौ बन्धितो रुषा। पाषाणः प्लवते' तोये नेत्यश्रद्दधता सता ॥६४ गृहीतो ब्राह्मणः क्वापि पिशाचेनैष निश्चितम् । कथं बूते ऽन्यथेदृक्षमसंभाव्यं सचेतनः ॥६५ असत्यं गदितं देव मयेदं मुग्धचेतसा। इत्येवं भणिते तेन राज्ञासौ मोचितः पुनः॥६६ ६१) १. क इति त्वं वद । २. क हेतुना । ६२) १. पश्चात् तपःकारणम् । २. भयस्य स्वरूपम् । ६३) १. राज्ञः । २. मन्त्रिणा; हरिनाम्ना । ३. जले । ६४) १. क तरति। २. अनृतं कुर्वता सता । ६५) १. मनःसंयुक्तः। उसके इस उत्तरको सुनकर वे ब्राह्मण बोले कि हे सुबुद्धे ! तुमने गुरुके बिना स्वयं किस कारणसे तपको ग्रहण किया है, यह हमें कहो ॥६१।। इसपर विद्याधरका पुत्र वह मनोवेग बोला कि मैं अपने इस तपके ग्रहण करनेका कारण कहता तो हूँ, परन्तु कहते हुए भयभीत होता हूँ। भयभीत होनेका कारण क्या है, उसे मैं स्पष्टतासे कहता हूँ; सुनिए ।।६२।। चम्पा नगरीमें गुणवर्मा राजाके एक हरि नामका मन्त्री था। उसने अकेले में पानीके ऊपर तैरती हुई एक शिलाको देखा ॥६३।। ___ उसे देखकर उसने इस आश्चर्यजनक घटनाको राजासे कहा। इसपर राजाने 'पत्थर कभी जलके ऊपर नहीं तैर सकता है' ऐसा कहते हुए उसपर विश्वास नहीं किया और क्रोधित होकर मन्त्रीको बन्धनमें डाल दिया। उसने सोचा कि यह ब्राह्मण ( मन्त्री) निश्चित ही किसी पिशाचसे पीड़ित है, क्योंकि, इसके बिना कोई भी विचारशील मनुष्य इस प्रकारकी असम्भव बातको नहीं कह सकता है ।।६४-६५।। । तत्पश्चात् मन्त्रीने जब राजासे यह कहा कि हे देव ! मैंने मूर्खतावश असत्य कह दिया था तब उसने मन्त्रीको बन्धन-मुक्त कर दिया ॥६६।। ६२) इभूस्ततोऽवादीत् । ६३) अ ड इ गुरुवर्मणः; क गुरुधर्मणः । ६५) इ पिशाचेनैव । ६६) अ सत्यं निगदितं देव; इ भणितस्तेन । For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001425
Book TitleDharmapariksha
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages409
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & religion
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy