SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 217
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १९६ अमितगतिविरचिता वर्धमानं जिनं दृष्ट्वा स्मशाने प्रतिमास्थितम् । रात्रावुपद्रवं चक्रे स विद्यानरशङ्कितः ॥४९ प्रभाते स जिनं नत्वा पश्चात्तापकरालितः। पादावमर्शनं ' चक्रे स्तावं स्तावं विषण्णधीः ॥५० जिनाघ्रिस्पर्शमात्रेण कपालं पाणितो'ऽपतत् । सद्यस्तस्य विनीतस्य मानसादिव कल्मषम् ॥५१ ईदृशः प्रक्रमः' साधो खरमस्तककर्तने । अन्यथा कल्पितो लोकैमिथ्यात्वतमसावृतैः ॥५२ दर्शयाम्यधुना मित्र तवाश्चर्यकरं परम् । निगद्येत्यषे रूपं स जग्राह खगदेहजः ॥५३ साधं पवनवेगेन गत्वा पश्चिमया दिशा। दक्षः पुष्पपुरं भूयः प्रविष्टो धर्मवासितः ।।५४ ५०) १. पादस्पर्शनम्; क पादमर्दनम् । ५१) १. क हस्ततः। ५२) १. प्रक्रमः। उक्त महादेवने रात्रिके समय श्मशानमें प्रतिमायोगसे स्थित-समाधिस्थ--वर्धमान जिनेन्द्रको देखकर विद्यामय मनुष्यकी शंकासे उपद्रव किया ॥४९॥ तत्पश्चात् सवेरा हो जानेपर जब उसे यह ज्ञात हुआ कि ये तो वर्धमान जिनेन्द्र हैं तब उसने पश्चात्तापसे व्यथित होकर खिन्न होते हुए स्तुतिपूर्वक उनका चरणस्पर्श कियावन्दना की ॥५०॥ उस समय जिन भगवानके चरणस्पर्श मात्रसे ही नम्रीभूत हुए उसके हाथसे वह कपाल (गधेका-सा सिर ) इस प्रकारसे शीघ्र गिर गया जिस प्रकार कि विनम्र प्राणीके अन्तःकरणसे पाप शीघ्र गिर जाता है-पृथक् हो जाता है ।।५१।। हे मित्र ! उक्त गर्दभसिरके काटनेका वह प्रसंग वस्तुतः इस प्रकारका है, जिसकी कल्पना अन्य जनोंने मिथ्यात्वरूप अन्धकारसे आच्छादित होकर अन्य प्रकारसे-तिलोत्तमाके नृत्यदर्शनके आश्रयसे-की है ॥५२॥ हे मित्र ! अब मैं उन्हें एक आश्चर्यजनक दूसरे प्रसंगको भी दिखलाता हूँ, ऐसा कहकर विद्याधरके पुत्र उस मनोवेगने साधुके वेषको ग्रहण किया ॥५३॥ तत्पश्चात् वह चतुर मनोवेग पवनवेगके साथ जाकर धर्मकी वासनावश पश्चिमकी ओरसे पुनः उस पाटलीपुत्र नगरके भीतर प्रविष्ट हुआ ॥५४॥ ५०) अ ब ज्ञात्वा for नत्वा । ५२) क अन्यथासक्ततो लोकै । ४९) ब श्मशानप्रतिमा। ५३) अ निगद्येति ऋषे । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001425
Book TitleDharmapariksha
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages409
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & religion
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy