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________________ प्रस्तावना मनुव्यासवसिष्ठानां वचनं वेदसंयुतम् । अप्रमाणयतः पुंसो ब्रह्महत्या दुरुत्तरा ॥ [१२] हरिषेण-ध. प. ८, ६ पृ. ४९ गतानुगतिको लोको न लोकः परमार्थिकः । एश्य लोकस्य मूर्खत्वं हारितं ताम्रभाजनम् ॥ अमितगतिका पद्य प्रथम पुरुषमें है दृष्टानुसारिभिर्लोकः परमार्थविचारिभिः । तथा स्वं हार्यते कार्य यथा मे ताम्रभाजनम् ॥ १५, ६४ [१३] हरिषेण-ध. प. ९, २५ पृ. ६१ प्राणाघातानिवृत्तिः परधनहरणे संयमः सत्य वाक्यं । काले शक्त्या प्रदानं युवतिजनकथामूकभावः परेषाम् ॥ तृष्णास्रोतोविभङ्गो गुरुषु च विनतिः सर्वसत्वानुकम्पा । सामान्यं सर्वशास्त्रेष्वनुपहतमतिः श्रेयसामेष पन्था ॥ यह पद्य भर्तृहरिके नीतिशतकसे लिया गया है । (नं. ५४) अमितगतिने इस प्रकारके विचार विभिन्न प्रकरणों में व्यक्त किये हैं। लेकिन इस प्रसंगमें हमें कोई तुलनात्मक पद्य इस कोटिका नहीं मिला है । [१४] हरिषेण-ध. प. १०, ९ पृ. ६४ (१) स्वयमेवागतां नारी यो न कामयते नरः । ब्रह्महत्या भवेत्तस्य पूर्व ब्रह्माब्रवीदिदम् ।। (२) मातरमुपैहि स्वसारमुपैहि पुत्रार्थो न कामार्थी । अमितगतिको रचनामें उल्लिखित कोटिके कोई उल्लेख नहीं हैं। १०. हरिभद्रसूरिका ( सन् लगभग ७००-७७० ) प्राकृतका धूर्ताख्यान प्राकृत और संस्कृतके धर्मपरीक्षा ग्रन्थोंमें उपस्थित साहित्यके अग्रवर्ती रूपका सुन्दर उदाहरण है। इन रचनाओंका लक्ष्य पौराणिक कथाओंके अविश्वसनीय चरित्र-चित्रणका भण्डाफोड़ करना है। हरिभद्र अपने उद्देश्यमें अत्यन्त बुद्धिपूर्ण ढंग पर सफल हुए हैं । कथानक बिलकुल सीधा-सादा है। पांच धूर्त इकट्ठे होते हैं और वे निश्चय करते हैं कि प्रत्येक अपना-अपना अनुभव सुनावे। जो उनको असत्य कहेगा उसे सबको दावत देनी पड़ेगी और जो पुराणोंसे तत्सम घटनाओंको सुनाता हआ उसे सर्वोत्तम सम्भव तरीकेपर निर्दोष प्रमाणित करेगा वह धूर्तराज समझा जायेगा। प्रत्येक धूर्त को मनोरंजक और ऊटपटांग अनुभव सुनाना है जिनकी पुष्टि उनका कोई साथी पुराणोंसे तत्सम घटनाओंका उल्लेख करता हुआ करता है। आख्यान केवल रोचक ही नहीं है, बल्कि विविध पुराणोंके विश्वसनीय चरित्र-चित्रणके विरुद्ध एक निश्चित पक्ष भी जागृत करता है। हरिभद्रने जैनधर्मके पक्षका अभिनय जानबूझकर नहीं किया है, यद्यपि उन्होंने ग्रन्थके अन्त तक पहुँचते-पहुँचते इस बातका संकेत कर दिया है (१२०-२१)। पुराणोके विरुद्ध हरिभद्रका आक्रमण विवाद-रहित और सुझावपूर्ण है, जबकि धर्मपरीक्षाके रचनाकारों-हरिपेण और अमितगतिने इसे अत्यन्त स्पष्ट और तीव्र कर दिया है। दोनोंने आक्रमणके साथ हो जैन आध्यात्मिक और आचार सम्बन्धी बातोंका प्रतिपादन बहत जोरके साथ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001425
Book TitleDharmapariksha
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages409
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & religion
File Size24 MB
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