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________________ धर्मपरीक्षा-७ वञ्च्यते सकलो लोको लोकैः कामार्थलोलुपैः । यतस्ततः सदा सद्भिर्विवेच्यं ' शुद्धया धिया ॥१८ ब्युदग्राही कथितो विप्राः कथ्यते पित्तदूषितः । इदानीं श्रूयतां कृत्वा समाधानमखण्डितम् ॥१९ अजनिष्ट नरः कश्चिद् विह्वलोभूतविग्रहः । पित्तज्वरेण तीव्रेण वह्निनेव करालितः ॥२० तस्य शर्करा मित्रं पुष्टितुष्टिप्रदायकम् । अदा कथितं क्षीरं पीयूषमिव पावनम् ॥२१ सो मन्यताधमस्ति क्तमेतन्निम्बर सोपमम् । भास्वरं भास्वतस्तेजः कौशिको मन्यते तमः ॥२२ इत्थं नरो भवेत् कश्चिद्युक्तायुक्ताविवेचकैः । मिथ्याज्ञानमहापित्तज्वरव्याकुलिताशयः ॥२३ १८) १. विचारणीयम् । २०) १. पीडितः । २१) १. कढिम् । २२) १. कटुकम् । २. सूर्यस्य । २३) १. क अविचारकः । २. चित्तम् । जो लोग काम और अर्थके साधनमें उद्युक्त रहते हैं वे चूँकि सब ही अन्य मनुष्योंको धोखा दिया करते हैं अतएव सत्पुरुषोंको सदा निर्मल बुद्धिसे इसका विचार करना चाहिए || १८ || ब्रह्म ! इस प्रकार मैंने व्युद्ग्राही पुरुषका स्वरूप कहा है । अब इस समय पित्तदूषित पुरुष के स्वरूपको कहता हूँ, उसे आप लोग स्थिरतासे सावधान होकर सुनें ||१९|| कोई एक पुरुष था, जिसका शरीर अग्निके समान तीव्र पित्तज्वरसे व्याकुल व पीड़ित हो रहा था ॥ २० ॥ उसके लिए अमृतके समान पवित्र, शक्कर से मिश्रित एवं सन्तोष व पुष्टिको देनेवाला टाया हुआ दूध दिया गया ||२१|| इस दूधको उस नीचने नीमके रसके समान कड़वा माना। सो ठीक ही है-उल्लू सूर्यके चमकते हुए प्रकाशको अन्धकार स्वरूप ही समझता है ||२२|| इसी प्रकार जिस किसी मनुष्यका हृदय मिथ्याज्ञानरूप तीव्र पित्तज्वर से व्याकुल होता है वह भी योग्य और अयोग्यका विचार नहीं कर सकता है ॥२३॥ Jain Education International १०९ १८) अ सुधिया for शुद्धया । २१) अ उ तुष्टिपुष्टि ; व आदाय । २२ ) अ ंधमस्त्यक्तं । २३) अ 'युक्तविवेचकः, ब युक्त्या युक्त्यवि, इयुक्तविचारकः; इ 'कुलितात्मना । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001425
Book TitleDharmapariksha
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages409
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & religion
File Size24 MB
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