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________________ १०८ अमितगतिविरचिता यो sa षणं लौहं मस्तके तं जघान स । ग्राहितमतिर्नीचः सुन्दरं कुरुते कुतः ॥ १२ सुन्दरं मन्यते प्राप्तं यः स्वष्टस्ये वचस्तदा । परस्यासुन्दरं सर्वं केनासौ बोध्यते ऽधमः ॥१३ यो जात्यन्धसमो मूढः परवाक्याविचारकः । स व्युग्राही मतः प्राज्ञः स्वकीयाग्रहसक्तधीः ॥१४ शक्यते मन्दरो' भेत्तुं जातु पाणिप्रहारतः । प्रतिबोधयितुं शक्यो व्युद्ग्राही न च वाक्यतः ॥१५ अज्ञानान्धः शुभं हित्वा गृह्णीते वस्त्वसुन्दरम् । जात्यन्ध इव सौवर्णं दोनो भूषणमायसम् ॥१६ प्रपद्यते सदा मुग्धो यः सुन्दरमसुन्दरम् ! उच्यते पुरतस्तस्ये न प्राज्ञेन सुभाषितम् ॥१७ १२) १. क जात्यन्धः | २. क हठग्राही । १३) १. स्वसंबन्धिनः । २. विज्ञाप्यते । १५) १. मेरु । १६) १. लोहमयम् । १७) १. मुग्धस्य । २. क सुवचनम् । उसके समक्ष जो भी उस आभूषणको लोहेका कहता वह उसके मस्तकपर उस लोहण्डका प्रहार करता । ठीक है - जिस नीच मनुष्यकी बुद्धिमें भ्रम उत्पन्न करा दिया गया है - जो बहका दिया गया है-वह अच्छा कार्य कहाँसे कर सकता है ? नहीं कर सकता है ||१२|| जो निकृष्ट मनुष्य प्राप्त हुए अपने इष्ट जनके कथनको तो उत्तम मानता है तथा दूसरेके सब कथनको बुरा समझता है उसे भला कौन समझा सकता है ? ऐसे दुराग्रही मनुष्यको कोई भी नहीं समझा सकता है ||१३|| जो मूर्ख उस जात्यन्ध कुमारके समान दूसरेके वचनपर विचार नहीं करता है और अपने दुराग्रह में ही बुद्धिको आसक्त करता है उसे पण्डित जन व्युद्ग्राही मानते हैं || १४ || कदाचित हाथी ठोकरसे मेरु पर्वतको भेदा जा सकता है, परन्तु वचनों द्वारा कभी व्युग्राही मनुष्यको प्रतिबोधित नहीं किया जा सकता है ||१५|| जिस प्रकार उस दीन जात्यन्ध कुमारने सुवर्णके भूषणको छोड़कर लोहेके भूषणको लिया उसी प्रकार अज्ञानसे अन्धा मनुष्य उत्तम वस्तुको छोड़कर निरन्तर हीन वस्तुको ग्रहण किया करता है ॥ १६ ॥ जो मूर्ख मनुष्य सुन्दर वस्तुको निकृष्ट मानता है उसके आगे बुद्धिमान पुरुष सुन्दर भाषण नहीं करता है ॥१७॥ १२) अ ब ड इ लोहं । १३) ब बोध्यते ततः । १४) अ शक्तिधीः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001425
Book TitleDharmapariksha
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages409
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & religion
File Size24 MB
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