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________________ १०७ धर्मपरीक्षा-७ नृपं मन्त्री ततोऽवादीदुपायं विदधाम्यहम् । अभाषत ततो राजा विधेहि न निवार्यसे ॥६ प्रदायाभरणं लौहं लोहदण्डं समयं तम् । समर्थिजनघाताये कुमारमभणीदिति ॥७ तव राज्यक्रमायातं भूषणं बुधपूजितम् । मावाः कस्यापि तातेदं दत्त राज्यं विनश्यति ।।८ ब्रयाल्लौहमिदं यो यस्तं तं' मर्धनि ताडय। कुमार लोहदण्डेन मा कार्षीः करुणां क्वचित् ॥९ प्रतिपन्नं' कुमारेण समस्तं मन्त्रिभाषितम् । के नात्र प्रतिपद्यन्ते कुशलैः कथितं वचः ॥१० ततो लोहमयं दण्डं गृहीत्वा स व्यवस्थितः । रोमाञ्चितसमस्ताङ्गस्तोषाकुलितमानसः ॥११ ७) १. क याचकजनहननाय । ८) १. भूषणे। ९) १. पुरुषम् । १०) १. अङ्गीकृतम् । २. वचः। इसपर मन्त्रीने राजासे कहा कि इसका उपाय मैं करता हूँ। तब राजाने कहा कि ठीक है, करो उसका उपाय, मैं नहीं रोकता हूँ ॥६॥ तब मन्त्रीने कुमारको लोहमय आभूषण और साथमें जनोंका घात करनेमें समर्थ एक लोह निर्मित दण्डको देते हुए उससे कहा कि विद्वानोंसे पूजित यह भूषण तुम्हारे राज्यक्रमसे-कुल परम्परासे-चला आ रहा है । हे तात ! इसे किसीके लिए भी नहीं देना । कारण इसका यह है कि इसके दे देनेपर यह राज्य नष्ट हो जायेगा । हे कुमार, जो-जो मनुष्य इसे लोहमय कहें उस-उसके सिरपर इस दण्डकी ठोकर मारना, इसके लिए कहीं भी दया नहीं करना ॥७-९॥ मन्त्रीके इस समस्त कथनको कुमारने स्वीकार कर लिया। ठीक है-चतुर पुरुषोंके द्वारा कहे गये वचनको यहाँ कौन नहीं स्वीकार करते हैं ? अर्थात् चतुर पुरुषोंके कथनको सब ही स्वीकार करते हैं ॥१०॥ उस लोहमय दण्डको लेकर उसके मनमें बहुत सन्तोष हुआ। तब वह रोमांचित शरीरसे संयुक्त होता हुआ उस दण्डके साथ स्थित हुआ ॥११॥ ६) अ त्वं for न; ब निवार्यते । ७) अ ब समर्प्य सः, ड समर्पितः, इ समर्पितम्; अ समर्थं जनथा नाथ कुमार, ब समर्थ जन, ह तमर्थिजन । ९) बल्लोहमयं; क तं त्वं मू। ११) अस्ताङ्गतोषां । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001425
Book TitleDharmapariksha
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages409
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & religion
File Size24 MB
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