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महावीर के उपदेश : १४१
इस प्रकार से अहिंसक तथा निर्ममत्व होमा बड़ा ही दुष्कर है।
सच्चे साधक, और तो क्या अपने शरीर तक पर ममत्व नहीं रखते हैं।
कैलाश पर्वत के समान कदाचित् सोने और चांदी के असंख्य पर्वत भी पास में हों, तो भी लोभी मनुष्य की तृप्ति के लिए बे नगण्य हैं । क्योंकि तृष्णा आकाश के समान अनत है।
कहीं भी ममत्वभाव नहीं करना चाहिए ।
ज्यों-ज्यों लाभ होता है, त्यों-त्यों लोभ पैदा होता है। धास्तव में लाभ होने पर लोभ बढ़ता है।
जिसको लोभ नहीं होता, उसकी तृष्णा नष्ट हो जाती है। और, जो अकिंचन (अपरिग्रह) है, उसका लोभ नष्ट हो जाता है।
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