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महावीर के उपदेश : १२१
राग और द्वष ये दोनों कर्म के बीज हैं। कर्म मोह से उत्पन्न होता है, ऐसा ज्ञानियों का कथन है। कर्म जन्ममरण का मूल है और जन्म-मरण दुःख की परम्परा है।
आत्मा अकेला ही अपने किये दुःख को भोगता है ।
जिस तरह मूल के सूख जाने से सींचने पर भी वृक्ष लहलहाता, हराभरा नहीं होता, इसी तरह से मोह-कर्म के क्षय हो जाने पर पुनः नवीन कर्म उत्पन्न नहीं होते।
जिस तरह दग्ध बीजों में से पुनः अंकुर प्रकट नहीं होते, उसी तरह से कर्म - रूपी बीजों के दग्ध हो जाने से भवअंकुर उत्पन्न नहीं होते हैं।
पहले जैसा भी कुछ कर्म किया गया है, वह भविष्य में उसी रूप में फल देने आता है।
जैसे राग-द्वष द्वारा उपार्जित कर्मों से फल बुरे होते हैं, वैसे ही सब कर्मों के क्षय से जीव सिद्ध हो कर सिद्धलोक को पहुच जाते हैं।
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