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महावीर के उपदेश : १११
आत्मा
जो एक आत्म • स्वरूप को जानता है, वह सब - कुछ जानता है।
पुरुष ! तू स्वयं ही अपना मित्र है। तू बाहर में मित्रों की किस खोज में है ?
बन्ध और मोक्ष अपनी स्वयं की आत्मा पर निर्भर है।
अपनी आत्मा हो नरक की वैतरणी नदी तथा कूट शाल्मली वृक्ष है । और अपनी आत्मा ही स्वर्ग की कामदुधा धेनु तथा नन्दन वन है।
अपनी आत्मा के विकारों के साथ ही युद्ध करना चाहिए। बाहरी शत्रुओं के साथ युद्ध करने से क्या लाभ ? आत्मा के द्वारा आत्म-जयी होने वाला ही वास्तव में पूर्ण सुखी होता है।
अपनी आत्मा के समान ही बाहर में दूसरों को भी देख।
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