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न पूजयार्थस्त्वयि ! वीतरागे ,
न निन्दया नाथ ! विवान्त-वैरे । तथापि ते पुण्य - गुण - स्मतिर्नः ,
पुनाति चित्तं दुरिताञ्जनेभ्यः ॥
- आचार्य समन्तभत्र
वीतराग ! निर्वैर ! न तुम को
तनिक प्रयोजन निन्दा - स्तुति से । फिर भी मन हो विमल पाप से ,
तेरे पुण्य - गुणों की स्मृति से ।।
- उपाध्याय अमरमुनि
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