SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 85
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ७६ भक्तामर स्तोत्र जगाद तत्त्वं जगतेऽथिनेऽञ्जसा, बभव च ब्रह्म - पदाऽमृतेश्वरः ॥४॥ -जिन्होंने अपने दोषों के मूल कारण राग, द्वेष, काम, क्रोध आदि को अपने प्रचण्ड समाधितेज से, परम शक्ल-ध्यानाग्नि से, दृढ़ता के साथ पूर्णतया भस्मीभूत कर दिया। तदनन्तर जिन्होंने तत्त्व-जिज्ञासु जनता को जीवाजीव आदि तत्त्वों का सम्यक - बोध दिया। और अन्त में जो ब्रह्म-पदरूपी अविनाशी अमृत - तत्त्व के ईश्वर हुए, स्वामी बने । स विश्व - चक्षुवृषभोचितः सतां, समग्र - विद्यात्म - वपुर् निरञ्जनः । पुनातु चेतो मम नाभिनन्दनो, जिनोऽजित-क्षुल्लक-वादिशासनः ॥५॥ -इस प्रकार जो समग्न कर्मशत्रुओं को जीतकर जिन हए। जो विश्व के अनन्त ज्ञानचक्षु और महान् श्रेष्ठ, जनों के द्वारा पूजित हैं। जिनका शासन एकान्तवादी क्षुल्लकवादियों के द्वारा सदैव अजेय है, जो सम्पूर्ण विद्याओं के आत्म - रूप हैं, अर्थात् सर्वज्ञ - सर्वदर्शी हैं, वे नाभिनन्दन निरंजन, निर्विकार, भगवान् ऋषभदेव हमारे अन्त:करण को पवित्र करें। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001421
Book TitleBhaktamara stotra
Original Sutra AuthorMantungsuri
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1987
Total Pages90
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Worship, M000, & M010
File Size3 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy