________________
भक्तामर - स्तोत्र
:४८ : यह गुण-माल विशाल, नाथ तुम गुनन संवारी। विविध वर्णमय पुहुप थि मैं भक्ति विथारी ।। "जे नर पहरे कंठ, भावना मन में भावें। मानतुंग ते निजाधीन, शिव - लछमी पावै ।। भाषा भक्तामर कियो, 'हेमराज' हितहेत । जे नर पढे सुभाव सौं, ते पावें शिव - खेत ।
अमर अभिलाषा
विश्व - समन्वय अनेकान्त - पथ, सर्वोदय का प्रति - पल गान । मैत्री - करुणा सब जीवों पर, जैन - धर्म जग - ज्योति महान ॥
उपाध्याय अमरमुनि
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org