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भक्तामर - स्तोत्र
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बद्धक्रमः क्रमगतं हरिणाधिपोऽपि,
नाकामति क्रमयुगाचल - संश्रितं ते ॥३६॥ अन्वयार्थ-भिन्नेभकुम्भगलदुज्ज्वलशोणिताक्त-मुक्तफल-प्रकर - भूषित - भूमि भागः) फाड़े हुए हाथी के गण्डस्थल से टपकते हुए उज्ज्वल तथा रक्त से सने हुए मोतियों के समूह से जिसने पृथ्वी के प्रदेश को विभूषित कर दिया है, तथा (वद्धक्रमः) जो छलाँग मारने के लिए उद्यत है, ऐसा हरिणाधिपः अपि) सिंह भी (क्रमगतम्) अपने पैरों के बीच आए हुए (ते) आपके (क्रमयुगाचल-संश्रितम्) चरण युगल रूप पर्वत का आश्रय लेने वाले पुरुष पर (न आक्रामति) आक्रमण नहीं करता ॥३६॥
भावार्थ- जिसने बड़े - बड़े भीमकाय हाथियों के कुम्भ - स्थल-मस्तकों को विदारण कर रक्त से सने हुए उज्ज्वल मोतियों के ढ़ेर से भू- प्रदेश को अलंकृत किया हो, जो चौकड़ी बाँधकर आक्रमण करने के लिए तैयार हो, ऐसा भयंकर सिंह भी आपके अचल चरणों का आश्रय लेने वाले भक्त पर आक्रमण नहीं कर सकता, भले ही वह आपका भक्त सिंह के बिल्कुल निकट पैरों के नीचे ही क्यों न आ गया हो।
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