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________________ भक्तामर स्तोत्र (स्थगित-भानुकर-प्रतापम् ) सूर्य की किरणों के सन्ताप को रोकने वाले तथा (मुक्ताफलप्रकरजाल - विवृद्धशोभम्) मोतियों के समूह की जाली - झालर से बढ़ती हुई शोभा को धारण करने वाले (तव उच्चैः स्थितम्) आपके ऊपर स्थित (छत्र - त्रयम् ) तीन छत्र (त्रिजगतः) तीनों लोक के (परमेश्वरत्वम् ) स्वामित्व को (प्रख्यापयत् ) प्रगट करते हुए से (विभाति) प्रतीत होते हैं ॥३१॥ | भावार्थ--हे प्रभो ! आपके मस्तक पर एक के ऊपर एक रहने वाले तीनों ही छन चन्द्रमा के समान उज्ज्वल है, सूर्य की किरणों के प्रताप को भी अभिभूत कर देने वाले हैं, तथा चारों ओर मोतियों की झालर से अत्यधिक शोभा पा रहे हैं। ये तीन छत्र आपके सम्बन्ध में चना दे रहे हैं, कि प्रभु, तीन लोक के परमेश्वर हैं। टिप्पणी तीन छत्र, भगवान् के तीन लोक के नाथ होने की चना करते हैं । आचार्यश्री की कल्पना-शक्ति बहुत प्रौढ़ हो ई है। यह चौथा प्रातिहार्य है। गम्भीरताररवपूरित – दिग्विभागस् - __ त्रैलोक्यलोकशुभसंगम - भूतिदक्षः । सद्धर्मराजजयघोषण - घोषकः सन्, खे दुन्दुभिर्ध्वनति ते यशसः प्रवादी ॥३२॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001421
Book TitleBhaktamara stotra
Original Sutra AuthorMantungsuri
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1987
Total Pages90
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Worship, M000, & M010
File Size3 MB
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