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भक्तामर-स्तोत्र
सोने के बने हुए ऊँचे तट की भांति (विभ्राजते) शोभा यमान होता है ॥३०॥
भावार्थ-हे जिनेन्द्र ! जिस प्रकार उदय होते हुए चन्द्रमा के समान निर्मल झरनों की जलधाराओं से सुवर्णगिरि सुमेरु का ऊँचा शिखर शोभित होता है उसी प्रकार देवताओं के द्वारा दोनों ओर ढुराये जाने वाले कुन्द - पुष्प के समान श्वेत चवरों की मनोहर शोभा से युक्त आपका सुवर्ण जैसी कान्ति वाला दिव्य रूप भी अतीव सुन्दर मालूम होता है।
टिप्पणी जिस प्रकार सुमेरु के शिखर से दोनों ओर स्वच्छ झरने झरते हैं, उसी प्रकार आपके सुवर्ण - जैसी कान्ति वाले दिव्य शरीर के दोनों ओर दो श्वेत चामर ठुरते हैं। कितनी भव्य कल्पना है ! यह तीसरे प्रातिहार्य का वर्णन है। छत्र-त्रयं तव विभाति शशांककान्त
मुच्चैः स्थितं स्थगितभानुकर-प्रतापम् । मुक्ताफलप्रकरजाल - विवृद्धशोभं,
प्रख्यापयत्रिजगतः परमेश्वरत्वम् ॥३१॥ अन्वयार्थ-(शशांककान्तम्) चन्द्रमा के समान सुन्दर
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