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________________ १७ भक्तामर स्तोत्र चन्द्र की किरणों के समान अति उज्ज्वल एवं निर्मल क्षीर-सागर का मधुर जल पीने के बाद, भला लवणसमुद्र का खारा जल कौन पीना चाहेगा? कोई भी नहीं । टिप्पणी वीतराग के भक्त को किसी राग-द्वेषयुक्त संसारी देव से कैसे सन्तोष मिल सकता है ? क्षीर-समुद्र का मधुर एवं निर्मल जल पी लेने के बाद, लबण समुद्र का खारा और गंदा जल भला कभी अच्छा लग सकता है ? कदापि नहीं । यैः शान्तरागरुचिभिः परमाणुभिस्त्वं, निर्मातिस्त्रिभुवनेक तावन्त एव खलु तेऽप्यणवः पृथिव्यां, यत्ते समानमपरं नहि रूपमस्ति ॥ १२ ॥ अग्वयार्थ - (त्रिभुवनैकललामभूत !) हे त्रिभुवन के एकमात्र आभूषण (त्वम् ) आप ( यै: ) जिन ( शान्तरागरुचिभिः) शान्तरस से उज्ज्वल ( परमाणुभिः) परमाणुओं से (निर्मार्पितः ) रचे गए हैं ( खलु ) निश्चय ही ( पृथिव्याम् ) पृथ्वी पर ( ते अणवः अपि ) वे अणु भी ( तावन्तएव ) उतने ही थे ( यत् ) क्योंकि ( ते समानम् ) आपके समान ( अपरं रूपम् ) दूसरा रूप ( नहि अस्ति ) नहीं है ॥१२॥ - ललामभूत ! Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001421
Book TitleBhaktamara stotra
Original Sutra AuthorMantungsuri
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1987
Total Pages90
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Worship, M000, & M010
File Size3 MB
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