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भक्तामर स्तोत्र
की वर्षा करने लगता है । आचार्य कहते हैं, कि मुझे भी इसी तरह आपकी दिव्य - भक्ति का रसास्वादन अपने आप बोलने के लिए लालायित कर रहा है । मुझे आशा है, आपकी भक्ति मेरे नीरस शब्दों में मधुरता पैदा करेगी । भवसंतति सनिबद्ध',
त्वत्संस्तवेन
आक्रान्त
पापं क्षणात्क्षयमुपैति शरीर - भाजाम् । लोकमलिनीलमशेषमाशु, सूर्यांशुभिन्नमिव शार्वरमन्धकारम् ॥७॥ अन्वयार्थ - ( त्वत्संस्तवेन ) आपकी स्तुति से (शरीरभाजाम् ) प्राणियों के ( भवसन्तति सन्निवद्धम् ) अनेक जन्म - परंपरा से बंधे हुए ( पानम् ) पाप कर्म ( आक्रान्त - लोकम् ) सम्पूर्ण लोक में फैले हुए (अलिनीलन् ) भौंरों के समान काला (शावंरम् ) रात्रि का ( अशेषम् अंधकारम् ) संपूर्ण अंधकार (सूर्या शुभिन्नम् इव) जैसे सूर्य की किरणों से छिन्न-भिन्न हो जाता है, उसी तरह पूर्वबद्ध कर्म ( क्षणात् ) क्षणभर में (आशु ) शीघ्र ही ( क्षयम् उपैति ) नष्ट हो जाते हैं ॥७॥
भावार्थ - भगवान् ! आपकी स्तुति का चमत्कार अलौकिक है । कोटि कोटि जन्मों का बंधा हुआ संसारी जीवों का पाप कर्म, आपकी स्तुति के प्रभाव से क्षण - भर में विनाश को प्राप्त हो जाता है ।
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