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का नाम लेते हैं, तो सहसा हमारे चित्त में भगवान के दिव्य रूप और अलौकिक गुणों की स्मृति जागृत हो जाती है। भगवन्नाम-स्मरण से चित्त अनायास ही भगवदाकार होने लगता है। भगवदाकार चित्त में, प्रभु के प्रेम से भरे हुए स्वच्छ हृदय में, भला पाप-ताप के लिए फिर स्थान ही कहाँ रहता है ? जन्म-जन्म के पापों को नष्ट करने के लिए भगवत्स्तुति भी एक अमोघ औषधि है। भगवान् का स्तवन, भगवान् का गुण-कीर्तन हमारी सोई हुई सवृत्तियों को सहसा जागृत कर देता है। 'यादृशी भावना यस्य सिद्धिर्भवति तादृशी' का अमर सिद्धांत न कभी मरा है और न कभी मरेगा । जो जैसी भावना करता है, वह वैसा ही बन जाता है।
वीर-स्तुति इन्हीं उपर्युक्त भावनाओं को लक्ष्य में रखकर भक्त जनता के समक्ष आ रही है। इन पंक्तियों के लेखक ने हिन्दी पद्यानुवाद और हिन्दी भावार्थ के रूप में अपनी तुच्छ सेवा भी साथ जोड़ दी है। मैं समझता हूँ, यह पाण्डित्य का प्रदर्शन नहीं है, किन्तु हृदय की भक्ति भावना का ही व्यक्तिकरण है। भगवान सुधर्मा की अमर कृति के पाठ के साथ-साथ यदि कुछ सेवा मेरे टूटे-फूटे शब्दों से भी ली जाएगी, तो मैं भक्त पाठकों का कृतज्ञ होऊँगा। जून १६६५,
--- उपाध्याय अमरमुनि
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