________________
वार-स्तुति
टिप्पणी-संसार का प्रत्येक जड़ और चेतन पदार्थ पर्याय की अपेक्षा से उत्पन्न होता है और नष्ट होता है, परन्तु मूल द्रव्य की अपेक्षा से ध्रुव = स्थिर रहता है । कुण्डल तोड़ कर कंगन बनाते समय स्वर्ण कुडल पर्याय के रूप में नष्ट होता है, कंगन पर्याय के रूप में उत्पन्न होता है, परन्तु वह स्वर्णरूप मूल द्रव्य के रूप में ध्र व ही रहता है। इसी प्रकार चैतन्य आत्मा भी उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य रूप से युक्त है। मनुष्य आदि भव को त्याग कर जब देव आदि भव धारण करता है, तो आत्मा मनुष्य के रूप में नष्ट होता है, देव रूप में उत्पन्न होता है, परन्तु आत्मारूप में ध्र व रहता है।
__ यहाँ स्तुतिकार का यह अभिप्राय है कि भगवान के ज्ञान में पदार्थ केवल वर्तमान रूप से ही प्रतिबिम्बित नहीं होते, प्रत्युत भूत, भविष्यत् और वर्तमान सभी रूपों में झलका करते हैं।
स्तोत्रकार ने 'नयन पथगामी' शब्द बड़ा ही भनि.पूर्ण दिया है । भक्त की आँखों में भगवान का रूप ही समाया रहना चाहिए। और जब नेत्रों में हमेशा भगवान ही रहेंगे, तो फिर संसारी भोग-विलासों को वहां स्थान ही कहाँ रहेगा ?
सामूहिक रूप में जब इस स्तोत्र को एक साथ पढ़ें, तब तो भवतु नः' कहना चाहिए। यदि कोई एक ही पढ़ने वाला हो तो 'भवतु में पढ़ना ठीक है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org