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________________ केवलज्ञान है तब उसका चित्त अपनी मूल कारणभूत प्रकृति में विलीन हो जाता है, चित्त के अभाव में चित्तवृत्ति अर्थात् ज्ञान का अभाव हो जाता है, अत: विदेहमुक्त को ज्ञान होता ही नहीं । पुरुष (आत्मा) साक्षात् चित्तवृत्ति का दर्शन करता है और घटपटादि विषयों का दर्शन चित्तवृत्ति द्वारा करता है। अत: मोक्ष में पुरुष को दर्शन भी नहीं है, मात्र दर्शनशक्ति है। न्याय-वैशेषिक परम्परा भी प्राचीन है। गौतम के उपलब्ध न्यायसूत्र में ई.स. पू. ३०० से ई.स. ४०० तक के स्तर दिखाई देते हैं। वात्स्यायन कृत न्यायभाष्य ई.स. पाँचवी शताब्दी के पूर्वार्द्ध की कृति प्रतीत होती है। गौतम और वात्स्यायन दोनों 'ईश्वर' पद से जीवन्मुक्त समझते हैं। ईश्वर अधर्म, मिथ्याज्ञान और प्रमाद का नाश कर के धर्म, ज्ञान और समाधिरूप सम्पत्ति प्राप्त करता है। वह परम उपदेष्टा है। वात्स्यायन जीवन्मुक्त को विहरन्मुक्त कहते हैं।28 वे उनको सर्वज्ञ के रूप में स्वीकार करते हुए प्रतीत होते हैं। जीवन्मुक्त योगी ऋद्धिबल से अनेक योगज सेन्द्रिय शरीर निर्माण कर के और मुक्तात्माओं द्वारा त्यक्त अणु मनों को ग्रहण करके सर्व ज्ञेयों को युगपद् जानता है ऐसा स्वीकार करते हुए वात्स्यायन प्रतीत होते हैं। उन्होंने 'ज्ञेय' पद के पूर्व 'सर्व' विशेषण रक्खा नहीं है किन्तु उनको वह अभिप्रेत हो एसा लगता है। न्याय-वैशेषिक मतानुसार ज्ञान आत्मा का विशेष गुण होने पर भी वह उसका स्वभाव नहीं है। शरीरावच्छिन्न आत्ममनः सन्निकर्षरूप निमित्तकारण से उत्पन्न हो कर ज्ञान कूटस्थनित्य आत्मा में समवाय सम्बन्ध से रहता है, मात्र इतना ही । मोक्ष में आत्मा को शरीर नहीं है और मन भी नहीं है, अत: निमित्तकारण के अभाव में ज्ञान ही नहीं है, तो फिर सर्वज्ञत्व तो कहाँ से होगा ? ई.स. छट्ठी शताब्दी में प्रशस्तपादने शैव-पाशुपत सम्प्रदाय के नित्यमुक्त महेश्वर को न्याय-वैशेषिक परम्परा में दाखिल किया और उसके साथ नित्य सर्वज्ञ ईश्वर जो जगतकर्ता है - का स्वीकार उत्तरकालीन सर्व न्याय-वैशेषिक चिन्तकों ने किया है, इतना ही नहीं उसकी प्रबल स्थापना भी की है। वर्तमान में विलुप्त आजीविक परम्परा में भी सर्वज्ञत्व की स्वीकृति दिखाई देती है। जैन आगम भगवतीसूत्र के निर्देश अनुसार जब गोशालक को उनका शिष्य अयंपुल मिलता है तब वह गोशालक का सर्वज्ञ के रूप में उल्लेख करता है। जैन परम्परा का आजीविक परम्परा के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध था। इन सब से निर्देश मिलता है कि भगवान महावीर के समय से सर्वज्ञत्व में श्रद्धा और सर्वज्ञत्व की प्रतिष्ठा में वृद्धि होती रही है। ऐसी परिस्थिति में जैन परम्परा सर्वज्ञत्व का स्वीकार किए बिना कैसे रह सकती Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001419
Book TitleJain Darshan me Shraddha Matigyan aur Kevalgyan ki Vibhavana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagin J Shah
PublisherJagruti Dilip Sheth Dr
Publication Year2000
Total Pages82
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size5 MB
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