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जैनदर्शन में सम्यग्दर्शन मतिज्ञान केवलज्ञान साधक को धर्ममेघसमाधि का लाभ होता है। इसी कारण योगी धर्ममेघसमाधि को विवेकख्याति की ही पराकाष्ठा समझते हैं। धर्ममेघसमाधि क्लेशों एवं कर्मों का समूल नाश करती है, परिणामतः साधक जीवन्मुक्त बनता है, अब उसका पुनर्जन्म सम्भवित नहीं है। उसने जन्म के कारणों का नाश किया है। ऐसे जीवन्मुक्त को विवेकज्ञानजन्य तारकज्ञान नाम की सिद्धि प्राप्त होती है। यह तारकज्ञान ही सर्व को जाननेवाला ज्ञान (सर्वज्ञज्ञान) है। तारकज्ञान ही सर्व विषयों को और उनकी अतीत, अनागत, वर्तमान सभी अवस्थाओं को अक्रम से एक क्षण में जान लेता है।22 तारकज्ञानरूप सिद्धि जिस विवेकी जीवन्मुक्त को प्राप्त हुई है वह, यदि क्षण और क्षणक्रम पर संयम (= धारणा, ध्यान और समाधि) करे तो, युगपत् एक ही क्षण में सर्व ज्ञयों को जानता है। इस प्रकार सर्व को जानने के लिए प्रमुखत: दो शर्तों का पालन आवश्यक हैं - (१) दृढ विवेकज्ञान प्राप्त करना चाहिए जिसके फलस्वरूप सर्व को जानने की सिद्धि, लब्धि, शक्ति प्राप्त होती है। (२) क्षण और क्षणक्रम पर संयम करना चाहिए। इस प्रकार प्राचीन सांख्य-योग चिन्तकों ने युगपत् सर्व का ज्ञान स्वीकार करने पर भी सतत अनन्त काल तक उसे प्रवर्तमान रहता है एसा नहीं माना है। किन्तु ईसा की तृतीय-चतुर्थ शताब्दी में योगभाष्यकार व्यासने नित्यमुक्त24 एक ईश्वर का ख्याल पातंजल योग परम्परा में दाखिल करके युगपत् सर्व का ज्ञान हमेशां ईश्वर में प्रवर्तमान रहता स्वीकार किया है.5 । उन्हें क्षण और क्षणक्रम पर संयम करने की आवश्यकता नहीं है। उनका सर्वज्ञत्व अनादि-अनन्त है, नित्य है। योगभाष्यकार पूर्व नित्यमुक्त एक ईश्वर का ख्याल योगदर्शन में भी नहीं था। 'ईश्वर' पद का प्रयोग तारकज्ञान (सर्वज्ञत्व) की सिद्धि प्राप्त जीवन्मुक्त में होता था और इस अर्थ में ईश्वर अनेक थे और अनित्य (पूर्व बद्ध) थे। सर्व जीवन्मुक्तों को इस तारकज्ञान की सिद्धि नहीं होती। अत: स्वयं भाष्यकार कहते हैं कि जीवन्मुक्त ईश्वर (तारकज्ञानसिद्धिरूप ऐश्वर्ययुक्त) हो या न हो, वह देहविलय के पश्चात् विदेहमुक्त होता ही है26 1 जीवन्मुक्त को विदेहमुक्त होने से पूर्व सर्वज्ञ बनना आवश्यक नहीं माना गया है। यह एक ध्यान देने योग्य बात है। सांख्य-योग अनुसार चित्त ही ज्ञाता है। चित्त की विषयाकार में परिणति ही ज्ञान है। चित्त के इस विषयाकार परिणाम को चित्तवृत्ति कहते हैं। अर्थात् चित्तवृत्ति ही ज्ञान है । अत: तारकज्ञान या सर्वज्ञज्ञान का अर्थ होगा युगपत् एक ही क्षण में चित्त की सर्व ज्ञेयों के आकार में परिणति । चित्त एक साथ अनन्त विषयों के आकार में कैसे परिणत हो सकता है और यह परिणाम कैसा होगा इसकी कल्पना करना भी कठिन है। परन्तु सांख्य-योग ने ऐसा माना है। जब जीवन्मुक्त विदेहमुक्त बनता
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