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________________ जैनदर्शन में सम्यग्दर्शन मतिज्ञान केवलज्ञान समावेश करके कुलमिलाकर दस विद्याओं के धारक बुद्ध को माना गया। इन दस विद्याओं को दसबल कहा जाता है। समाविष्ट सात विद्याएँ इस प्रकार है - (१) उचित को उचित रूप में और अनुचित को अनुचित रूप में जाननेवाला ज्ञानबल (२) कर्मों के फल जाननेवाला ज्ञानबल (३) साधनामार्ग किस ओर ले जाते हैं यह जाननेवाला ज्ञानबल (४) लोक के विविध और अनेक घटक तत्त्वों को जाननेवाला ज्ञानबल (५) जीवों के अभिप्रायों को जाननेवाला ज्ञानबल (६) जीवों की शक्तियाँ मन्द हैं या तीव्र हैं, इत्यादि जाननेवाला ज्ञानबल (७) ध्यान, विमुक्ति, समाधि और समापत्ति इन चार की शुद्धि, अशुद्धि और वृद्धि को जाननेवाला ज्ञानबल । इन दस बल की सूची पर से फलित होता है कि अभी भी बुद्ध के सर्वज्ञ होने की मान्यता उपस्थित नहीं हुई है। 7 लेकिन बाद में अल्प समय में ही बुद्ध के सर्वज्ञ होने का स्वीकार प्रतीत होता है। मझिमनिकाय के कण्णत्थलसुत्त में बुद्ध के मुख में निम्न दो विधान रखे हैं : (१) नत्थि सो समणो वा ब्राह्मणो वा यो सकिदेव सब्बं अस्सति सब्बं दक्खिति... न तं ठाणं विज्जति । (“ऐसा कोई श्रमण या ब्राह्मण नहीं है, जो युगपत् सर्व को जानता हो, देखता हो;... यह असम्भव है') (२) येते एवमाहंसु... समणो गोतमो एवमाह नत्थि सो समणो वा ब्राह्मणो वा यो सब्बञ्जू सब्बदस्सावी अपरिसेसं जाणं दस्सनं पटिजानिस्सति, न तं ठानं विज्जती ति न मे ते वुत्तवादिनो अब्भाचिक्खन्ति च पन मं ते असता अभूतेनाति । (“ ऐसा कोई श्रमण या ब्राह्मण नहीं है जो सर्वज्ञ और सर्वदर्शी हो तथा अनन्त ज्ञान एवं दर्शन प्राप्त हो, क्योंकि यह असम्भव है एसा श्रमण गौतम ने कहा है' - एसा जो मेरे विषय में कहता है वह सत्य नहीं कहता है और जो असत्य और जूठा है उसका मुझ पर आरोप करके मुझे कलंकित करता है।") इन दो विधानों से यह स्पष्ट होता है कि युगपत् सर्व के ज्ञान का और युगपत् सर्व के दर्शन का बुद्ध स्वीकार नहीं करते, फिर भी किसी अन्य अर्थ में सर्व का ज्ञान और सर्व का दर्शन स्वीकार करते हैं। निश्चित किस अर्थ में सर्व का ज्ञान और सर्व का दर्शन बुद्ध स्वीकार करते हैं यह इन दो विधानों पर से अनुमान करना कठिन नहीं है। दो विधानों को दृष्टि में रखकर हम कह सकते हैं कि सर्व का ज्ञान और सर्व का दर्शन स्वीकार करने में अब दो ही विकल्प शेष रहते हैं : (१) क्रम से सर्व का ज्ञान करना और क्रम से सर्व का दर्शन करना; (२) जो कुछ जानना-देखना हो उसे योग्य ध्यान करके जानना-देखना । प्रथम विकल्प अस्वीकार्य है क्योंकि ज्ञेय अनन्त होने से सर्व ज्ञेयों को क्रम से जानना असम्भव है। अत: स्वाभाविकरूप से फलित होता है कि बुद्ध सर्वज्ञत्व और सर्वदर्शित्व का इस अर्थ में स्वीकार करते हैं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001419
Book TitleJain Darshan me Shraddha Matigyan aur Kevalgyan ki Vibhavana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagin J Shah
PublisherJagruti Dilip Sheth Dr
Publication Year2000
Total Pages82
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size5 MB
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