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जैनदर्शन में सम्यग्दर्शन मतिज्ञान केवलज्ञान सकता है कि भविष्य में कब चन्द्रग्रहण, सूर्यग्रहण या खगोलीय घटना घटित होगी। अत: यह तर्क भी सर्वज्ञत्व को सिद्ध नहीं कर सकता। (४) सभी जीव असर्वज्ञ है, इस व्याप्ति को ग्रहण करने के लिए त्रैकालिक और सर्वदेशस्थ सभी जीवों का और उनकी असर्वज्ञता का प्रत्यक्ष ग्रहण करने की आवश्यकता नहीं है। जैन धूम और अग्नि की व्याप्ति के ग्रहण के लिए त्रैकालिक और सर्वदेशस्थ सर्व धूमों और सर्व अग्नियों के प्रत्यक्ष को आवश्यक नहीं मानते। सर्व सत् वस्तु उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य युक्त है, यह व्याप्ति जैनों को स्वीकार्य है। क्या इस व्याप्ति के ग्रहण हेतु त्रैकालिक और सर्वदेशस्थ सत् वस्तुएँ और उनकी उत्पाद-व्यय-ध्रौव्ययुक्तता का प्रत्यक्ष जैन आवश्यक मानते हैं ? नहीं, जैन मतानुसार व्याप्तिग्रहण प्रत्यक्ष से नहीं, अपितु तर्क से होता है। अत: सर्वज्ञ की सिद्धि के लिए दिया गया चौथा तर्क भी ग्राह्य नहीं है। (५) राग आगन्तुक मल होने से उसका उच्छेद सर्वस्वीकृत है। परन्तु इससे इतना ही कह सकते हैं कि वीतरागी का ज्ञान रागरहित पूर्णत: शुद्ध होता है, नहीं कि सर्वविषय को जाननेवाला। जो वीतराग होता है वह सर्वज्ञ होता ही है, ऐसा नहीं कहा जा सकता । पातंजल योगदर्शन वीतराग में सर्वज्ञत्व अनिवार्य नहीं मानता। 'केवलज्ञान' पद का अर्थ
'केवलज्ञान' शब्द का अर्थ - ‘केवलज्ञान' शब्दगत 'केवल' पद का एक अर्थ 'विशुद्ध होता है। अतः केवलज्ञान' शब्द का अर्थ 'विशुद्ध ज्ञान' इतना ही होगा। विशुद्ध ज्ञान अर्थात् रागमल से अक्लिष्ट ज्ञान । केवलज्ञान वीतराग का ज्ञान है, इस सत्य के साथ इसकी उचित संगति है और योगदर्शन में पतंजलि ने जिन अक्लिष्ट चित्तवृत्तिओं (ज्ञानों) की बात की है!2 वे अक्लिष्ट चित्तवृत्ति और केवलज्ञान दोनों एक ही परिस्थिति को सूचित करते हैं। अक्लिष्ट चित्तवृत्ति और केवलज्ञान दोनों को अभिन्न मानने में कोई आपत्ति नहीं है। यहाँ बाह्य विषयों के ज्ञानों का प्रतिषेध नहीं हैं, परन्तु वे ज्ञान विषयराग से, किसी भी प्रकार के राग से सर्वथा मुक्त है। सामान्य जन रागयुक्त होने से जब भी उनको किसी भी विषय का ज्ञान होता है तब उस ज्ञान के साथ ही राग-द्वेष का भाव अवश्य उदित होता है। इसके विपरीत, वीतरागी के बारे में उनको जब कोई भी विषय का ज्ञान होता है तब उस विषय के प्रति राग-द्वेष का कोई भाव उदित नहीं होता। इस प्रकार वीतरागी का ज्ञान रागरहित विशुद्ध है और वह केवलज्ञान है। कतिपय चिन्तकों ने सोचा कि विशुद्ध ज्ञान का रागरहित होना पर्याप्त नहीं है, अपितु उसका विषयाकारशून्य होना भी आवश्यक है। अत: उनके अनुसार केवलज्ञान का अर्थ है रागरहित एवं साथ साथ विषयाकाररहित
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