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उपसंहार
इस प्रकार जैन चिन्तकों ने आध्यात्मिक चार सोपानों में से एक सोपान मनन को मतिज्ञान में परिवर्तित करके मतिज्ञान में इन्द्रियप्रत्यक्ष, स्मृति, प्रत्यभिज्ञा, तर्क और अनुमान का समावेश करने का आधार भी मनन में से ही प्राप्त कर लिया और पश्चात् प्रत्येक को स्वतन्त्र प्रमाण के रूप में स्थापित करके जैन प्रमाणशास्त्र निर्माण कर दिया | श्रवण को श्रुतज्ञान में परिवर्तित करके उसे भी स्वतन्त्र प्रमाण के रूप में स्थापित करके जैन प्रमाणशास्त्र को पूर्ण किया । जैन जिनको मुख्य प्रत्यक्ष मानते हैं वे अवधिज्ञान, मनःपर्यायज्ञान और केवलज्ञान अतीन्द्रिय प्रत्यक्ष (extrasensory perceptions) हैं और इसलिए वस्तुत: वे प्रमाणशास्त्र अर्थात् लोजिक के क्षेत्र में नहीं पड़ते हैं । वे प्रमाणशास्त्र का विषय नहीं हैं। वे तो पराचित्तशास्त्र (Parapsychology) के क्षेत्रमें पड़ते है, वे उसका विषय हैं ।
टिप्पण
जैनदर्शन में सम्यग्दर्शन मतिज्ञान केवलज्ञान
1. मतिज्ञानं नाम यदिन्द्रियानिन्द्रियनिमित्तं वर्तमानकालविषयपरिच्छेदि । तत्त्वार्थाधिगमटीका, १.३
2. स्मृतिज्ञानम् अतीतवस्त्वालम्बनम्... । वही, १.१३
3. संज्ञाज्ञानं नाम यत् तैरेवेन्द्रियैरनुभूतमर्थं प्राक् पुनर्विलोक्य स एवायं यमहमद्राक्षं पूर्वाह्ण इति । वही, १.१३
4. चिन्ताज्ञानमागामिनो वस्तुनः । वही, १.१३
5. महेन्द्रकुमार जैन सम्पादित न्यायविनिश्चयविवरण, भारतीय ज्ञानपीठ, काशी, १९४४, द्वितीय भाग, हिन्दी प्रस्तावना, पृ. ११.
6. ततो धारणा प्रमाणं स्मृतिः फलम् । ततोऽपि स्मृतिः प्रमाणं प्रत्यभिज्ञानं फलम् । ततोऽपि प्रत्यभिज्ञा प्रमाणम् ऊहः फलम् । ततोऽपि ऊहः प्रमाणम् अनुमानं फलमिति । प्रमाणमीमांसा - स्वोपज्ञवृत्ति, १.१.३९
यहाँ चिन्ता के लिए 'ऊह' शब्द का प्रयोग हुआ है और ऊह ही तर्क है। अभिनिबोध के लिए 'अनुमान' शब्द का प्रयोग हुआ है और अभिनिबोध ही अनुमान है 1
7. किं तु मतिज्ञानावरणक्षयोपशमनिमित्तोपयोगं नातिवर्तन्त इति अयमत्रार्थो विवक्षितः । सर्वार्थसिद्धि, १.१३. तत्त्वार्थसूत्र १.१३ का पं. सुखलालजी का विवेचन |
8. तदेतत् मतिज्ञानं द्विविधं भवति इन्द्रियनिमित्तम् अनिन्द्रियनिमित्तं च । तत्त्वार्थभाष्य, १.१४ 9. एवं चैतद् द्रष्टव्यम् - इन्द्रियनिमित्तमेकम्, अपरमनिन्द्रियनिमित्तम्, अन्यदिन्द्रियानिन्द्रियनिमित्तमिति त्रिधा । तत्त्वार्थटीका, १.१४
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