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________________ जैनदर्शन में मतिज्ञान निश्चय का कारण है । परार्थानुमान अर्थात् 'दूसरों के लिए अनुमान', परप्रतिपत्ति के लिए प्रयोजित अनुमान ।50 हेतुलक्षण - बौद्ध तार्किक हेतु के तीन लक्षण मानते हैं - पक्षधर्मत्व, सपक्षसत्त्व और विपक्षव्यावृत्ति । नैयायिक इन तीन के उपरान्त अन्य दो लक्षण - अबाधितविषयत्व और असत्प्रतिपक्षत्व - मिलाकर कुल पाँच लक्षण मानते हैं। जैन तार्किक बौद्ध तार्किक और नैयायिक के इन मतों का खण्डन करके हेतु का एक ही लक्षण स्वीकारते हैं और वह है - अविनाभाव या अन्यथानुपपत्ति। हेतुप्रकार - अकलंकदेव सामान्यत: हेतु के उपलब्धि और अनुपलब्धि ये दो भेद करके उपलब्धि के स्वभाव, कार्य, कारण, पूर्वचर, उत्तरचर और सहचर छह प्रभेद करते हैं। आचार्य हेमचन्द्र को हेतु के कुल पाँच भेद स्वीकार्य हैं। ये हैं - स्वभाव, कारण, कार्य, एकार्थसमवायी और विरोधी ।52 हेत्वाभास - सद्हेतु न होने पर भी जो हेतु सद्हेतु जैसा दिखाई दे वह हेत्वाभास है। नैयायिक हेतु के पाँच लक्षण मानते हैं, अत: उनके अनुसार एक एक लक्षण के अभाव में असिद्ध, विरुद्ध, अनैकान्तिक, कालात्ययापदिष्ट और प्रकरणसम ये पाँच हेत्वाभास बनते हैं। जैन हेतु का मात्र एक ही लक्षण अन्यथानुपपत्ति मानते हैं, अत: वस्तुत: उनके मत में अन्यथानुपपत्ति के अभाव में हेत्वाभास का भी सामान्यत: एक ही प्रकार होता है और वह है असिद्ध परन्तु अन्यथानुपपत्ति का अभाव अनेक रीति से होता है अत: जैन उनके आधार पर अधिकांशत: तीन ही हेत्वाभास का स्वीकार करते हैं - असिद्ध, विरुद्ध और अनैकान्तिक परन्तु अकलंक और उनके अनुयायी दिगम्बर जैन तार्किकोंने इन तीनों के उपरान्त अकिंचित्कर नामक चौथे हेत्वाभास का स्वीकार किया है।53 अवयव - नैयायिक न्यायवाक्य (अनुमान) के पाँच अवयव स्वीकारते हैं, यथा - प्रतिज्ञा, हेतु, उदाहरण (व्याप्तिसहित), उपनय और निगमन । मीमांसक उपनय और निगमन को क्रमश: हेतु और प्रतिज्ञा की पुनरुक्ति मात्र मानकर प्रतिज्ञा, हेतु, उदाहरण इन तीन अवयवों का स्वीकार करते हैं। बौद्ध तार्किक अधिक से अधिक हेतु और उदाहरण (व्याप्ति सहित) दो अवयव और कम से कम मात्र एक अवयव हेतु स्वीकारते हैं। जैन न्यूनतम दो अवयव प्रतिज्ञा और हेतु का स्वीकार करते हैं, परन्तु श्रोता की योग्यता की अपेक्षा तीन, चार या पाँच अवयवों का भी स्वीकार करते हैं। ध्यानार्ह बात यह है कि दृष्टान्त के कथन को जैन तार्किको ने अनुमान का अंग नहीं माना (मात्र व्याप्तिकथन ही अनुमान का अंग है।) । अलबत्ता, वे श्रोता को समझाने के लिए दृष्टान्त की उपयोगिता का स्वीकार करते हैं।54 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001419
Book TitleJain Darshan me Shraddha Matigyan aur Kevalgyan ki Vibhavana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagin J Shah
PublisherJagruti Dilip Sheth Dr
Publication Year2000
Total Pages82
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size5 MB
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