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________________ जैनदर्शन में श्रद्धा (सम्यग्दर्शन) की विभावना आत्मा प्रतिक्षेत्र भिन्न - क्षेत्र अर्थात् शरीर । आत्मा प्रतिशरीर भिन्न है। जैन आत्मबहुत्ववादी हैं। आत्मा देहपरिमाण-- जैन मतानुसार आत्मा संकोच-विकासशील है। 4 आत्मा जिस देह को धारण करती है, उसी देह जितना ही उसका परिमाण हो जाता है। वास्तव में जैनों की आत्मा चित्त ही है। सांख्यचिन्तक भी चित्त को संकोच-विकासशील मानते थे। वे कहते हैं : चित्त संकोच-विकासशील है। एक दीपक को घट में रखने से इसका प्रकाश घट में संकुचित होकर रहता है, किन्तु उसी दीपक को कक्ष में रखने से उसका प्रकाश कक्ष के समान विकसित हो जाता है। इसी प्रकार चित्त का भी संकोच-विस्तार होता है। शरीर के परिमाण के जितना ही परिमाण धारण कर चित्त रहता है।5 आत्मा पौगलिक अदृष्टवान् - आत्मा का अदृष्ट अर्थात् कर्म पौगलिक द्रव्यरूप (material substance) है। वह अत्यन्त सूक्ष्म है। कर्मों को भौतिक माननेवाली अनेक परम्पराएँ हैं। उनमें सांख्य, आजीविक और बौद्ध तो है ही। इस विषय में सांख्य मत के सम्बन्ध में शेरबाट्स्की लिखते हैं : In Sankhya, karma is explained materialistically, as consisting in a special collocation of infraatomic particles or material forces making the action either good or bad. (Boddhist Logic, Vol. I, p. 133, fn. 3) । कर्म पौगलिक हो तो उनमें रंग होने चाहिए। जैसे जपाकुसुम का लाल रंग उसकी सन्निधि में रहे दर्पण में प्रतिफलित होता है वैसे ही कर्मों के रंग अपनी सनिधि में रहे चित्त में प्रतिफलित होते हैं। इस प्रकार कर्म की पौद्गलिकता के कारण जीवरंगों (लेश्याओं, psychic colourations) की जैन मान्यता घटित होती हैं। सांख्य के सत्त्व, रजस् और तमस् के क्रमशः तीन रंग शुक्ल, रक्त और कृष्ण, एवं उनके आधार पर मनुष्यों का सात्त्विक, राजसिक और तामसिक में वर्गीकरण ध्यानार्ह है। आजीविकों की छह अभिजातियाँ भी भौतिक कर्मरजों के रंगो के कारण होनेवाले चेतसिक रंग हैं। महाभारत शान्तिपर्व (१२.२८६.३३) में निरूपित छह जीववर्ण36 भी आजीविकों की छह अभिजातियाँ समान हैं। बौद्ध धर्म में एवं पातंजल योग में भी रंग आधारित कर्मों के चार विभाग किये गये हैं। इसी कारण प्राध्यापक झीमर बताते हैं कि कर्म के रंगों का सिद्धान्त जैन धर्म की ही खास विशेषता नहीं है, अपि तु मगध में सुरक्षित आर्यपूर्व की सामान्य विरासत का एक हिस्सा हो, ऐसा प्रतीत होता है। कर्म पौद्गलिक हैं, भौतिक हैं, मूर्त हैं जब कि आत्मा चेतन है, अभौतिक है, अमूर्त है। ऐसी परिस्थिति में कर्म आत्मा के साथ सम्बद्ध कैसे हो सकता है ? भौतिक-मूर्त द्वारा चेतन-अमूर्त का उपघात या Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001419
Book TitleJain Darshan me Shraddha Matigyan aur Kevalgyan ki Vibhavana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagin J Shah
PublisherJagruti Dilip Sheth Dr
Publication Year2000
Total Pages82
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size5 MB
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