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जैनदर्शन में श्रद्धा (सम्यग्दर्शन) की विभावना पुरुष के रूप में स्वीकार किया है। इसी प्रकार जैन परम्पराने उनको तीर्थंकर के रूप में अपनाया हो यह संभवित है। यदि हिन्दु परम्परा-हिन्दु पुराण-बुद्ध को अवतार के रूप में अपना सकते हैं तो जैन आगम भी ऋषभदेव को तीर्थंकर के रूप में क्यों नहीं अपना सकते ? एक वस्तु ध्यान देने योग्य है कि जैन ऋषभदेव को आदिनाथ भी कहते हैं और नाथ सम्प्रदाय के प्रथम सिद्ध भी आदिनाथ है। जैनों के तेईसवें तीर्थंकर पार्श्वनाथ के 'पार्श्व' नाम की काल्पनिक उपपत्तियां (खुलासा) जैन परम्परा में उपलब्ध हैं। इस सम्बन्ध में हम एक नयी सम्भावना की ओर निर्देश करते हैं । प्राचीनकाल में सामान्यतः जातिनाम से व्यक्ति को पहचानने की प्रथा थी। तदनुसार बुद्ध शाक्यपुत्र के रूप में और तीर्थंकर महावीर ज्ञातृपुत्र के रूप में पहचाने जाते थे। उसी प्रकार ‘पार्श्व' नाम का अर्थ ही है पशुपुत्र-पशुजातिविशेष का पुत्र । पाणिनि ने पशु जाति का उल्लेख किया है (५.३.११७) । 'पर्शोः अपत्यं पुमान् पार्श्वः' । जैनों की चौबीस तीर्थंकरों की मान्यता एवं ऋषभ आदि चौबीस तीर्थंकरों के सम्बन्ध में विशेष संशोधन अपेक्षित है। जैनदर्शन को समझने के लिए अन्य दर्शनों का अध्ययन आवश्यक
किसी भी तत्त्वज्ञान या चिन्तनधारा का विकास अन्य तत्त्वज्ञानों से बिलकुल विच्छिन्न केवल अवस्था में नहीं होता है। अतः किसी भी तत्त्वज्ञान को समझने के लिए उस के साथ में अस्तित्व में रहे अन्य तत्त्वज्ञानों का ज्ञान होना अत्यन्त आवश्यक है। यदि जैन केवल जैन आगमों एवं जैन ग्रन्थों के अध्ययन तक अपने को सीमित रखते हैं और उपनिषद, बौद्ध ग्रन्थों आदि में निरूपित तत्त्वज्ञानों की उपेक्षा करते हैं तो वे अपने तत्त्वज्ञान को भी कदापि सम्यक् समझ नहीं सकते । भिन्न भिन्न तत्त्वज्ञानों में कुछ न कुछ सत्य अवश्य होता है। उन सभी आंशिक सत्यों को जान कर समझकर, उनका योग्य समन्वय करके पूर्ण सत्य को पाना चाहिए, ऐसा माननेवाले अनेकान्तवादी जैनों के लिए तो यह धर्मादेश है कि उन को जितना हो सके उतने अधिक से अधिक दर्शनों का - भारतीय एवं भारतीयेतर - अध्ययन करना चाहिए
और उनका समन्वय कर के पूर्णसत्य को प्राप्त करने में प्रयत्नशील होना चाहिए। इसलिए महान जैन मर्मी आनंदघनजी कहते हैं
षड्दरसन जिनअंग भणीजे न्यायषडंग जो साधे रे । नमि जिनवरना चरणउपासक षड्दर्शन आराधे रे ॥१॥
...... लोकायतिक कूख जिनवरनी ॥४॥
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