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________________ गा० ४५-५१] सुत्तसमुक्त्तिणी अवगयवेद-णसय-इत्थी-पुरिसेसु चाणुपुव्वीए। अट्ठारसयं णवयं एक्कारसयं च तेरसया ॥४५॥ कोहादी उवजोगे चदुसु कसाएसु चाणुपुवीए । सोलस य ऊणवीसा तेवीसा चेव तेवीसा ॥४६॥ णाणम्हि य तेवीसा तिविहे एक्कम्हि एक्कवीसा य। अण्णाणम्हि य तिविहे पंचेव य संकमठाणा ॥४७|| आहारय-भविएसु य तेवीसं होति संकमाणा। अणाहारएसु पंच य एक्कं ठाणं अभविएसु ॥४८॥ छव्वीस सत्तवीसा तेवीसा पंचवीस वावीसा । एदे सुण्णट्ठाणा अवगदवेदस्स जीवस्स ॥४६॥ उगुवीसहारसयं चोदस एक्कारसादिया सेसा । एदे सुगणटाणा णवुसए चोदसा होति ॥५०॥ अट्ठारस चोदसयं हाणा सेसा य दसगमादीया । एदे सुण्णहाणा बारस इत्थीसु बोद्धव्वा ॥५१॥ अपगतवेद, नपुंसकवेद, स्त्रीवेद और पुरुषवेदमें क्रमसे अठारह, नौ ग्यारह और तेरह संक्रमस्थान होते हैं ।।४।। क्रोधादि चार कषायोंमें क्रमसे सोलह, उन्नीस, तेईस और तेईस संक्रमस्थान होते हैं ॥४६॥ मति आदि तीन प्रकारके ज्ञानों में तेईस, एक मनःपर्ययज्ञानमें इक्कीस और तीनों प्रकारके अज्ञानोंमें पाँच ही संक्रमस्थान होते हैं ॥४७॥ __ आहारक और भव्य जीवोंमें तेईस, अनाहारकोंमें पाँच और अभव्योंमें एक ही संक्रमस्थान होता है ॥४८॥ अपगतवेदी जीवोंमें छब्बीस, सत्ताईस, तेईस, पच्चीस और बाईस ये पाँच संक्रमस्थान नहीं होते ॥४९॥ नपुंसकवेदमें उन्नीस, अठारह, चौदह और ग्यारह आदि शेष सब स्थान अर्थात् कुल मिलाकर चौदह संक्रमस्थान नहीं होते ॥५०॥ स्त्रियोंमें अर्थात् स्त्रीवेदवाले जीवोंमें अठारह और चौदह तथा दस आदि शेष सब स्थान इस प्रकार ये बारह संक्रमस्थान नहीं होते ॥५१॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001414
Book TitleKasaypahudam Part 08
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages442
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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