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गा० २६]
सण्णियासो १५५. अणंताणुगंधिकोधं संकामेंतो मिच्छ० सिया संका० सिया असंका० । सम्म०-सम्मामि० सिया अस्थि सिया णत्थि । जदि अत्थि, सिया संकाम० सिया असंकाम० । पण्णारसक०-णवणोक० णियमा संकामओ। एवं तिण्हमणंताणुबंधिकसायाणं ।
__ १५६. अपच्चक्खाणकोधं संकामेंतो मिच्छ०-सम्म०-सम्मामि०-अणंताणु०४ सिया अस्थि सिया पत्थि । जइ अत्थि, सिया संकाम० सिया असंकाम० । दसकसायाणं णियमा संकामओ। लोभसंजलण-णवणोकसायाणं सिया संकाम० सिया असंकाम० । एवं पञ्चक्खाणकोहं ।।
६ १५५ जो अनन्तानुबन्धी क्रोधका संक्रामक है वह मिथ्यात्वका कदाचित् संक्रामक है और कदाचित् असंक्रामक है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व कदाचित् हैं और कदाचित् नहीं हैं । यदि हैं तो इनका कदाचित् संक्रामक है और कदाचित् असंक्रामक है। किन्तु पन्द्रह कषाय
और नौ नोकषायोंका नियमसे संक्रामक है। मान आदि तीन अनन्तानुबन्धियोंका इस प्रकार कथन करना चाहिये।
विशेषार्थ-अनन्तानुबन्धीका संक्रम मिथ्यादृष्टि और सम्यग्दृष्टि दोनोंके सम्भव है किन्तु मिथ्यात्वका सक्रिम केवल सम्यग्दृष्टिके ही होता है, अतः जो अनन्तानुबन्धी क्रोधका संक्रामक है वह मिथ्यात्वका कदाचित् संक्रामक है और कदाचित् असंक्रामक है यह कहा है । जो अनादि मिथ्यादृष्टि है या जिस मिथ्यादृष्टिने सम्यक्त्व और सम्यग्मिध्यात्वकी उद्वेलना कर दी है उसके सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व नहीं हैं शेषके हैं। तथा सासादन और मिन गुणस्थानमें तो इनका सद्भाव नियमसे है । किन्तु एक तो इन दोनों गुणस्थानोंमें दर्शनमोहनीयकी प्रकृतियोंका संक्रम नहीं होता और दूसरे उद्वेलनाके अन्तमें जब इनकी सत्ता आवलिके भीतर प्रविष्ट हो जाती है तब इनका संक्रम नहीं होता, अतः 'जो अनन्तानुबन्धीका संक्रामक है वह सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका कदाचित् संक्रामक है और कदाचित् संक्रामक नहीं है। यह कहा है। यहाँ इतना विशेष और जानना चाहिये कि सम्यक्त्वका संक्रम सम्यग्दृष्टि अवस्थामें नहीं होता है । शेष कथन सुगम है।
१५६ जो अप्रत्याख्यानावरण क्रोधका संक्रामक है उसके मिथ्यात्व, सम्यक्त्क, सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धीचतुष्क कदाचित् हैं और कदाचित् नहीं हैं। यदि हैं तो इनका कदाचित् संक्रामक है और कदाचित् असंक्रामक है । तथापि अप्रत्याख्यानावरण मान आदि दश कषायोंका नियमसे संक्रामक है। किन्तु लोभ संज्वलन और नौ नोकषायोंका कदाचित् संक्रामक है और कदाचित् अयंक्रामक है। इसी प्रकार प्रत्याख्यानावरण क्रोधका संक्रम करनेवाले जीवके जानना चाहिये।
विशेषार्थ-जिस जीवने अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी विसंयोजना और तीन दर्शनमोहनीयका क्षय कर दिया है उस अप्रत्याख्यानावरणक्रोधके संक्रामकके ये सात प्रकृतियां नहीं पाई जाती, शेषके पाई जाती हैं। उसमें भी सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके सत्त्वके सम्बन्धमें और भी कई नियम हैं जिनका यथायोग्य पहले विवेचन किया ही है उसी प्रकार यहाँ भी जानना चाहिये । इन सात प्रकृतियोंका सत्व रहने पर भी अवस्था विशेषमें इनका संक्रम होता है और अवस्था विशेषमें इनका संक्रम नहीं होता, अतः जो अप्रत्याख्यानावरण क्रोधका संक्रामक है वह इनका कदाचित् संक्रामक है और कदाचित् संक्रामक नहीं है यह कहा है । अन्तरकरण करनेके बाद
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