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________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [बंधगो६ $ १५३. संपहि एदेण सुत्तेण सूचिदत्यविवरणद्वमुच्चारणं वत्तइस्सामो। तं जहा-सम्मत्तस्स संकामओ मिच्छ० असंका० । सम्मामि०-बारसक०-णवणोक० णियमा संकामओ। अणंताणु०चउक्कस्स सिया संकामओ सिया असंकामओ। १५४. सम्मामि० संकामेंतो मिच्छ ०-सम्म०-अणंताणु०४ सिया अस्थि सिया णत्थि । जइ अस्थि, सिया संका० सिया असंका० । बारसक०-णवणोक० सिया संका० सिया असंका० । ___ १५३. अब इस सूत्रसे सूचित होनेवाले अर्थका विवरण करनेके लिये उच्चारणाको बतलाते हैं । यथा-जो सम्यक्त्वका संक्रामक है वह मिथ्यात्वका असंक्रामक है; सम्यग्मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायोंका नियमसे संक्रामक है तथा अनन्तानुबन्धी चतुष्कका कदाचित् संक्रामक है और कदाचित् असंक्रामक है । विशेषार्थ-सम्यक्त्वका संक्रम मिथ्यात्वमें होता है किन्तु वहां मिथ्यात्वका संक्रम नहीं होता अतः जो सम्यक्त्वका संक्रामक है वह मिथ्यात्वका असंक्रामक है यह कहा है । सम्यग्मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायोंका संक्रम सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टि दोनोंके होता है, अतः सम्यक्त्वके संक्रामकको उक्त प्रकृति का संक्रामक नियमसे बतलाया है । यद्यपि अनन्तानुबन्धीचतुष्कका संक्रम सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टि दोनोंके होता है तथापि जिसने अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विसंयोजना की है उसके मिथ्यात्वमें आनेपर एक प्रावलिकालतक उनका संक्रम नहीं होता, अतः सम्यक्त्वके संक्रामकको अनन्तानुबन्धीचतुष्कका कदाचित् संक्रामक और कदाचित् असंक्रामक बतलाया है। ६१५४. जो सम्यग्मिथ्यात्वका संक्रामक है उसके मिथ्यात्व, सम्यक्त्व और अनन्तानुबन्धी. चतुष्कका कदाचित् सत्त्व है और कदाचित् सत्त्व नहीं है । यदि सत्त्व है तो वह उनका कदाचित् संक्रामक है और कदाचित् असंक्रामक है । बारह कपाय और नौ नोकषयोंका कदाचित् संक्रामक है और कदाचित् असंक्रामक है। विशेषार्थ-सम्यग्मिथ्यात्वका संक्रम करनेवाले जिसने अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी विसंयोजना की है और जो दर्शनमोहनीयकी क्षपणा करते हुए मिथ्यात्वका क्षय कर चुका है उसके अनन्तानुबन्धीचतुष्क और मिथ्यात्वका सत्त्व नहीं पाया जाता । तथा जो सम्यक्त्वकी उद्वेलनाकर चुका है उसके भी सम्यक्त्वकी सत्ता नहीं पाई जाती है। किन्तु इसके अतिरिक्त सम्यग्मिथ्यात्वका संक्रम करनेवाले शेष सब जीवोंके उक्त प्रकृतियोंकी सत्ता पाई जाती है। सो यह जोव इन प्रकृतियोंका कदाचित् संक्रामक है और कदाचित् असंक्रामक है। मिथ्यात्वका मिथ्यात्व गुणस्थानमें असंक्रामक है और सम्यग्दृष्टि अवस्था में संक्रामक है। सम्यक्त्वका सम्यग्दृष्टि अवस्थामें असंक्रामक है मिथ्यात्व गुणस्थानमें संक्रामक है । अनन्तानुवन्धीका दो स्थलोंमें असंक्रामक है । शेष सब जगह संक्रामक है । एक तो जब विसंयोजना करते हुए अनन्तानुबन्धीकी सत्ता आवलिप्रविष्ट हो जाती है तब असंक्रामक है और दूसरे जिसने अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना की है ऐसा जीव जब मिथ्यात्वमें जाता है तब एक श्रावलि काल तक असंक्रामक है। इसी प्रकार बारह कषाय और नौ नोकषायोंका उपशम होनेके पूर्व संक्रामक है और उपशम होने पर असंक्रामक है । किन्तु लोभसंज्वलनका आनुपूर्वी संक्रमणके प्रारम्भ होनेपर असंक्रामक है । लोभसंज्वलनसम्बन्धी इस विशेषताका अन्यत्र जहां कहीं उल्लेख न किया हो वहाँ भी इसी प्रकार जान लेना चाहिये। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001414
Book TitleKasaypahudam Part 08
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages442
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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