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________________ ४०४ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ बंधगो ६ एवं चेव तिण्हं वड्डीणं सत्थाणेण संभवो वत्तव्यो, तत्थ वि तप्पाओग्गधुवट्ठिदीदो संखेजगुणं अंतोकोडाकोडिमेत्तद्विदिसंकमवुड्डीए विरोहाभावादो। एवं सेसजीवसमासेसु वि सत्थाणवुड्डी अणुमग्गियव्वो। णवरि बीइंदिय-तीइंदिय-चउरिंदियासण्णिपंचिंदियपज्जत्तापजत्तएसु सगसगधुवट्ठिदिसंकमादो उवरि वड्डमाणेसु असंखेजभागवड्डि-संखेञभागबुड्डिसण्णिदाओ दो चेव वड्डीओ संमवंति, पलिदोवमस्स संखेजदिभागमेत्तेसु तव्वीचारटाणेसु संखेजगुणवड्डीए णिव्विसयत्तादो । बादर-सुहुमेइंदियपजत्तापजत्तएसु पुण असंखे०भागवड्डी एक्का चेव, तव्वीचारहाणाणं पलिदोवमासंखेजभागणियमदंसणादो । एत्थ परत्थाणेण वि तिविहवुड्डिसंभवो विहत्तिभंगेणाणुगंतव्यो । ___६८७०. संपहि चउण्हं हाणीणं विसओ उच्चदे । तं जहा-अघट्ठिदिगलणेण द्विदिसंकमस्सासंखेजभागहाणी चेव, पयारंतरासंभवादो। द्विदिखंडयघादेण चउव्विहा वि हाणी होइ, कत्थ वि द्विदिसंतकम्मादो असंखेजभागस्स कत्थ वि संखेज भागस्स कत्थ वि संखेजाणं भागाणं कत्थ वि असंखेजाणं च भागाणं धादसंभवादो। सेसपरूवणाए द्विदिविहत्तिभंगो। संपहि अवट्ठाणविसओ उच्चदे-तिण्हमण्णदरवुड्डीए असंखेजभागहाणीए च अवट्ठाणं दट्ठव्वं, तप्परिणामेणेयसमयमवट्ठिदस्स विदियसमए तेत्तियमेत्तावट्ठाणे विरोहाभावादो। सेसहाणीसु ण संभवइ, तत्थ विदियसमए असंखेजभागहाणिणियम स्वस्थानकी अपेक्षा इसी प्रकार तीन वृद्धियाँ सम्भव हैं यह कहना चाहिए, क्योंकि उन जीवोंमें भी ध्रुवस्थितिसे संख्यातगुणी अन्तःकोड़ाकोड़ीप्रमाण संक्रमवृद्धिके होनेमें विरोध नहीं है । इसीप्रकार शेष जीवसमासोंमें भी स्वस्थानवृद्धिका विचार कर लेना चाहिए। किन्तु इतनी विशेषता है कि द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और असंज्ञो पञ्चन्द्रिय पर्याप्त तथा अपर्याप्त जीवसमासोंमें अपने अपने ध्रुवस्थितिसंक्रमसे आगे वृद्धि होनेपर असंख्यातभागवृद्धि और संख्यातभागवृद्धि नामवाली दो बृद्धियाँ ही सम्भव हैं, क्योंकि उनके पल्यके संख्यातवें भागप्रमाण वीचारस्थानोंमें संख्यातगुणवृद्धिका कोई विषय । उपलब्ध नहीं होता । परन्तु बादर एकेन्द्रिय और सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्त तथा अपर्याप्त जीवोंमें एक असंख्यातभागवद्धि ही पाई जाती है, क्योंकि उनके वीचारस्थानोंका पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण होनेका नियम देखा जाता है। यहाँ पर परस्थानकी अपेक्षा तीन प्रकारकी वृद्धि सम्भव है यह बात स्थितिविभक्तिके समान जान लेनी चाहिए। ६८७०. अब चार हानियोंका विषय कहते हैं। यथा-अधःस्थितिगलनाके द्वारा स्थितिसंक्रमकी असंख्यातभागहानि ही होती है, यहाँ पर अन्य कोई प्रकार सम्भव नहीं है। परन्तु स्थितिकाण्डकघातसे चारों प्रकारकी हानि होती है, क्योंकि कहीं पर स्थितिसत्कर्मसे उसके असंख्यातवें भागका, कहींपर संख्यातवें भागका, कहीं पर संख्यात बहुभागका और कहीं पर असंख्यात बहुभागका घात सम्भव है। शेष प्ररूपणा स्थितिविभक्तिके समान है। अब अवस्थानके विषयको बतलाते हैं-तीन वृद्धियोंमेंसे किसी एक वृद्धिके तथा असंख्यातभागहानिके होने पर अवस्थान जानना चाहिए, क्योंकि उक्त प्रकारके परिणामसे एक समय तक अवस्थित हुए जीवके दूसरे समयमें उतना ही अवस्थान होनेमें विरोध नहीं है । परन्तु शेष हानियोंमें अवस्थान सम्भव नहीं है, क्योंकि वहाँ पर दूसरे समयमें असंख्यातभागहानिका नियम देखा जाता है । इस प्रकार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001414
Book TitleKasaypahudam Part 08
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages442
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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