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________________ ४०३ गा ०५८] उत्तरपयडिट्ठिदिवड्डिसंकमे समुक्त्तिणा * मिच्छत्तस्स असंखेज भागवड्डि-हाणी संखेज भागवडि-हाणी संखेजगुणवडि-होणी असंखेज गुणहाणी अवठ्ठाणं च। ६.८६९. कथमेदेसिं तिण्हं वड्डीणं चउण्हं हाणीणं च मिच्छत्तट्ठिदिसंकमविसए संभवो ? उच्चदे--मिच्छत्तधुवट्ठिदिसंकमादो अंतोकोडाकोडिपमाणादो समयुत्तरादिकमेण वड्डमाणस्स असंखेजभागवड्डी चेव होऊण गच्छइ जाव धुवद्विदीए उवरि धुवढिदि जहण्णपरित्तासंखेजेण खंडिय तत्थेयखंडमेत्तेण धुवढिदिसंकमो अहिओ जादो त्ति । एत्तो उवरि वि असंखे भागवड्डिविसो चेव जाव हेट्ठिमवियप्पाणमुक्कस्ससंखेजपडिभागियमेगभागं रूबूणमेत्तं वड्डिदं ति । तदो संखेजभागवड्डी पारभदि, तत्थ धुवट्ठिदीए उबरि धुवट्ठिदिमुक्कस्ससंखेज्जेण खंडिय तत्थेयखंडयमेतहिदिसंकमवुड्डीए दंसणादो । एत्तो संखेजभागवड्डिविसओ ताव गच्छइ जाव धुवट्ठिदीए उवरि रूवूणधुवहिदिमेत्तं वडिदं ति । पुणो धुवहिदीए उवरि धुवट्ठिदिमेत्तं चेव वड्डियूण संकामेमाणस्स संखेज. गुणवडिपारंभो होऊण ताव गच्छइ जाव धुवट्ठिदिपाओग्गउक्कस्सद्विदिसंकमो जादो त्ति । एवं धुवट्ठिदिसंकमं णिरुद्धं कादूण तिण्हं वड्डाणं संभवो परूविदो । समयुत्तरादिधुवद्विदीणं पि पुध पुघ णिरुंभणं काऊण जहासंभवमेवं चेव तिविहवड्डिसंभवगवेसणा कायव्वा । एवं सण्णिपंचिंदियपजत्तस्स सत्थाणेण तिविहवड्डिसंभवो परूविदो । तदपजत्तस्स वि ___* मिथ्यात्वकी असंख्यातभागवृद्धि-हानि, संख्यामागवृद्धि-हानि, संख्यातगुणवृद्धि हानि, असंख्यातगुणहानि और अवस्थान है । ६८६९. शंका-मिथ्यात्वके स्थितिसंक्रमके विषयमें इन तीन वृद्धियों और चार हानियोंकी कैसे सम्भावना है ? समाधान-कहते हैं-मिथ्यात्वके अन्तःकोड़ाकोड़ीप्रमाण ध्रुवस्थितिसंक्रमसे एक समय अधिक श्रादिके क्रमसे वृद्धिको प्राप्त होनेवाले जीवके ध्रुवस्थितिमें जघन्य परीतासंख्यातका भाग देकर वहाँपर लब्ध आये एक भागसे ध्रुवस्थितिमें ध्रुवस्थितिसंक्रमके अधिक होने तक असंख्यातभागवृद्धिका प्रवाह ही चालू रहता है । तथा आगे भी, नीचेके विकल्पोंमें उत्कृष्ट असंख्यातका भाग देकर जो एक भाग लब्ध आवे उसमें से एक कम विकल्पोंकी वृद्धि होने तक असंख्यातभागबृद्धिका ही विषय है। इसके आगे संख्यातभागवृद्धि प्रारम्भ होती है, क्योंकि वहाँ पर ध्रुवस्थितिके ऊपर ध्रवस्थितिको उत्कृष्ट संख्यातसे भाजित कर वहाँ जो एक भाग लब्ध आवे तत्प्रमाण स्थितिसंक्रमकी वृद्धि देखी जाती है। इससे आगे संख्यातभागवृद्धिका विषय तब तक बना रहता है जब तक एक कम ध्रुवस्थितिमात्र वृद्धि ध्रुवस्थितिमें होती है । पुनः ध्रुवस्थितिमें ध्रुवस्थितिमात्र बढ़ाकर संक्रम करनेवाले जीवके संख्यातगुणवृद्धिका प्रारम्भ होकर तब तक जाता है जब तक ध्रवस्थितिके योग्य उत्कृष्ट संक्रम होता है । इस प्रकार ध्रुवस्थितिसंक्रमको विवक्षित कर तीन वृद्धियोंकी सम्भावना कही। एक समय अधिक आदि ध्रुवस्थितियोंको भी पृथक् पृथक् विवक्षित कर इसीप्रकार तीन वृद्धियाँ सम्भव हैं इसका विचार कर लेना चाहिए । इस प्रकार संज्ञी पञ्चेन्द्रिय पर्याप्त जीवके स्वस्थानकी अपेक्षा तीन प्रकारकी वृद्धि सम्भव है इसकी प्ररूपणा की। संज्ञी पञ्चन्द्रिय अपर्याप्त जीवोंके भी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001414
Book TitleKasaypahudam Part 08
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages442
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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