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________________ गा० ५८ ] उत्तरपयडिविदिपदणिक्खेवसंकमे सामित्तं ३६७ ® सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणं जहएिणया वड्डी कस्स ? ६.८४९. सुगमं। * पुब्बुप्पएणसम्मत्तादो दुसमयुत्तरमिच्छत्तसंतकम्मित्रो सम्मत्तं पडिवण्णो तस्स विदियसमयसम्माइद्विस्स जहरिणाया वडी। ६८५०. कुदो ? वेदगसम्मत्तग्गहणपढमसमए दुसमयुत्तरमिच्छत्तट्ठिदिं पडिच्छिय तत्थेवाधद्विदीए णिसेयमेयं गालिय विदियसमए पढमसमयसंकमादो समयुत्तरं संकामेमाणयम्मि जहण्णवुड्डीए एयसमयमेत्तीए परिप्फुडमुवलंभादो। ® हाणी सेसकम्मभंगो। 5 ८५१. सुगम, अघट्ठिदिगलणेणेयसमयहाणीए सव्वत्थ पडिसेहाभावादो। * अवठ्ठाणमकरसभंगो। ६ ८५२. एदं पि सुगम, पयारंतासंभवादो । एवमोघेण जहण्णुकस्सवड्डि-हाणिअवट्ठाणाणं सामित्तविणिण्णओ कओ। . ६.८५३. एत्तो आदेसपरूवणटुं उच्चारणं वत्तइस्सामो । तं जहा-सामित्तं दुविहंजह० उक्क० । उक्कस्से पयदं । दुविहो जिद्द सो-ओघेण आदेसेण य । ओघेण मिच्छत्तसोलसक० उक्क० द्विदिसं०वड्डी कस्स ? जो चउट्ठाणजवमज्झस्सुवरि अंतोकोडाकोडिट्ठिदिं * सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य वृद्धि किसके होती है ? ६८४६. यह सूत्र सुगम है । * जो पहले उत्पन्न हुए सम्यक्त्वसे मिथ्यात्वमें जाकर तथा मिथ्यात्वके दो समय अधिक सत्कर्मवाला होकर सम्यक्त्वको प्राप्त हुआ उस द्वितीय समयवर्ती सम्यग्दृष्टिके जधन्य वृद्धि होती है। ६८५०. क्योंकि वेदकसम्यक्त्वको ग्रहण करनेके प्रथम समयमें मिथ्यात्वकी दो समय अधिक स्थितिको संक्रमित करके तथा वहीं अधःस्थितिके एक निषेकको गलाकर दूसरे समय में प्रथम समयमें हुए संक्रमसे एक समय अधिकका संक्रम करनेपर स्पष्टरूपसे एक समयमात्र जघन्य वृद्धि उपलब्ध होती है। * हानिका भंग शेष कर्मोंके समान है। $ ८५१. यह सूत्र सुगम है, क्योंकि अधःस्थितिकी गलना होनेसे एक समयमात्र हानिका सर्वत्र कोई प्रतिषेध नहीं है। * अवस्थानका भंग उत्कृष्टके समान है। ६८५२. यह सूत्र भी सुगम है; क्योंकि प्रकारान्तरका प्राप्त होना असम्भव है। इस प्रकार ओघसे जघन्य और उत्कृष्ट वृद्धि, हानि और अबस्थानके स्वामित्वका निर्णय किया। ६८५३. आगे आदेशका कथन करनेके लिए उच्चारणाको बतलाते हैं। यथा-स्वामित्व दो प्रकारका है-जधन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्टका प्रकरण है। निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे मिथ्यात्व और सोलह कषायोंके स्थितिसंक्रमकी उत्कृष्ट वृद्धि किसके होती है ? चतुःस्थान यवमध्यके ऊपर अन्त:कोड़ाकोड़ीप्रमाण स्थितिका संक्रम करनेवाले जिस जीवने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001414
Book TitleKasaypahudam Part 08
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages442
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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