SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 408
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ गो० ५८ ] उत्तरपयडिट्ठिदिपदणिक्खेव संकमे सामित्तं ९८४२. जो पुव्वुप्पण्णादो सम्मत्तादो मिच्छत्तं गंतून सम्मत्तट्ठिदिसंतादो समउत्तरं मिच्छत्तट्ठिदिं बंधिऊण सम्मत्तं पडिवण्णो तस्स विदियसमयसम्माइट्ठिस्स दोन्ह कम्माणमुकस्समवड्डाणं होइ, तत्थ पढमसमयसंकंतमिच्छत्तट्ठिदिसंतकम्मस्स विदियसमए गलिदासस पढमसमयसम्मत्त-सम्मामिच्छत्तट्ठिदिसंकमपमाणेणावद्वाणदंसणादो । एवमोघेण सव्वकम्माणमुक्कस्सवड्डि- हाणि-अवट्ठाणसामित्तपरूवणा गया । * एत्तो जहरियाए । $ ८४३. एत्तो उवरि सव्वेसिं कम्माणं जहण्णवड्डि-हाणि अट्ठाणसामित्तपरूवणा काव्वात्त भणिदं होइ । * सम्मत्त-सम्मामिच्छत्तवज्जाणं जहणिया बड्डी कस्स ? $ ८४४. सुगमं । ॐ अष्पष्पण समयुगादो उकस्सट्ठिदिसंकमादो उक्कस्सडिदिसंकमेमाणस्स तस्स जहरिया बड्ढी । १८४५ तं कथं ? समयूणुकस्सट्ठिदिं वंधियूण तदणंतरसमए उकस्सट्ठिदि बंधिय बंघावलियवदिकंतं संकामेंतो हेट्ठिमसमए समय्णडिदिसंकमादो समयुत्तरं संकामेदि । तदो ३६५ $ ८४२. जो पूर्व में उत्पन्न हुए सम्यक्त्वसे मिथ्यात्व में जाकर सम्यक्त्वके स्थितिसत्त्वसे मिथ्यात्व की एक समय अधिक स्थितिको बाँधकर सम्यक्त्वको प्राप्त हुआ उस द्वितीय समयवर्ती सम्यग्दृष्टिके दोन्हों कर्मोंका उत्कृष्ट अवस्थान होता है, क्योंकि वहाँ पर प्रथम समय में संक्रान्त हुए तथा दूसरे समय में गलकर अवशिष्ट रहे मिध्यात्व के स्थितिसत्कर्मका प्रथम समय में प्राप्त हुए सम्यक्त्व और सम्यमिध्यात्वके स्थितिसंक्रमके प्रमाणरूपसे अवस्थान देखा जाता है । इसप्रकार घसे सब कर्मों की उत्कृष्ट वृद्धि, हानि और अवस्थानके स्वामित्वको प्ररूपणा की । * आगे जघन्यका अधिकार है । ९८४३. इससे आगे सब कर्मोंकी जघन्य वृद्धि, हानि और अवस्थानके स्वामित्वका कथन करना चाहिए यह उक्त कथनका तात्पर्य है । * सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके सिवा शेष कर्मोंकी जघन्य वृद्धि किसके होती है ? $ ८४४. यह सूत्र सुगम है । * जो अपने अपने एक समय कम उत्कृष्ट स्थितिसत्कर्म से उत्कृष्ट स्थितिका संक्रम करता है उसके जघन्य वृद्धि होती है । ९ ८४५. शंका वह कैसे ? समाधान- क्योंकि एक समय कम उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध कर पुनः तदनन्तर समयमें उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध कर बन्धावलिके बाद संक्रम करता हुआ पिछले समय में हुए एक समय कम स्थितिसंक्रम से एक समय अधिक का संक्रम करता है, इसलिए उसके जघन्य वृद्धि होती है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001414
Book TitleKasaypahudam Part 08
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages442
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy