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________________ - जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [बंधगो ६ फालिपादणाणंतरमप्पयरसंकममंतराविय देसूणमद्धपोग्गलपरियट्ट परिभमिय थोवावसेसए सिज्झिदव्वए सम्मत्तं पडिवण्णस्स तदंतरसमाणाणुवलंभादो। णवरि पुणो सम्मत्तं पडिवत्तिविदियसमए अवत्तव्वसंकामयंतरं परिसमाणेयव्वं । तदणंतरसमए च अप्पयरसंकमंतरववच्छेओ कायव्वो, अंतोमुहुत्तपडिवादपडिवत्तीहि भुजगारावट्ठिदाणमंतरपरिसमत्ती कायव्वा । एवमोघेणंतरपरूवणा गया । ____ ७७६. संपहि एदेण देसामासयसुत्तेण सूचिदमादेसपरूवणं वत्तइस्सामो। तं जहा-आदेसेण सव्वणेरइय-सव्वतिरिक्ख-सव्वमणुस्स-सव्वदेवा त्ति द्विदिविहत्तिभंगो । णवरि मणुसतिय० ३ बारसक०-णवणोक० अवत्त० जह० अंतोमु० । उक्क० पुव्वकोडिपुधत्तं । एवं जाव। ॐ णाणाजीवेहि भंगविचओ । ७७७. सुगममेदं सुत्तं, अहियारसंभालणमेत्तफलत्तादो । ® मिच्छत्तस्स सव्वजीवा भुजगारसंकामगा च अप्पयरसंकामया च अवडिदसंकामया च । ६ ७७८. मिच्छत्तस्स भुजगारादिसंकामया णाणाजीवा णियमा अत्थि त्ति एत्थाहियारसंबंधो कायव्वो। कुदो एदेसि णियमा अस्थित्तं ? ण, मिच्छत्तभुजगारादिकुछ कम अर्धपुद्गल परिवर्तन काल तक परिभ्रमण करके सिद्ध होनेके लिए थोड़ा काल शेष रहने पर सम्यक्त्वको प्राप्त हुए जीवके उनके अन्तरोंकी समाप्ति उपलब्ध होती है। किन्तु इतनी विशेषता है कि पुनः सम्यक्त्वको प्राप्त होनेके दूसरे समयमें अवक्तव्यसंक्रमका अन्तर समाप्त करना चाहिए। और तदनन्तर समयमें अल्पतरसंक्रमके अन्तरका विच्छेद करना चाहिए तथा अन्तर्मुहूर्तके भीतर सम्यक्त्वसे च्युत होकर पुनः प्राप्त करनेरूप क्रियाके द्वारा भुजगार और अवस्थितपदके अन्तरकी समाप्ति करनी चाहिए। इस प्रकार ओघसे अन्तरकालकी प्ररूपणा समाप्त हुई। ६७७६. अब इस देशामर्षक सूत्रसे सूचित हुए आदेशका कथन करते हैं। यथा-आदेशसे सब नारकी, सब तिर्यञ्च, सब मनुष्य और सब देवोंमें स्थितिविभक्तिके समान भंग है । किन्तु इतनी विशेषता है कि मनुष्यत्रिकमें बारह कषाय और नौ नोकषायोंके अवक्तव्यसंक्रामकका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर पूर्वकोटिपृथक्त्वप्रमाण है। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए। * अब नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचयकका अधिकार है। ६७७७. यह सूत्र सुगम है, क्योंकि इसका प्रयोजन अधिकारकी सम्हालमात्र करना है। * मिथ्यात्वके सब ( नाना ) जीव भुजगारसंक्रामक हैं, अल्पतरसंक्रामक हैं और अवस्थितसंक्रामक हैं। ६७७. मिथ्यात्वके भुजगार आदि पदोंके संक्रामक नाना जीव नियमसे हैं इसप्रकार यहाँ पर अधिकारका सम्बन्ध करना चाहिए । शंका-इनका नियमसे अस्तित्व क्यों है ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001414
Book TitleKasaypahudam Part 08
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages442
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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