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________________ गा० ५८] उत्तरपयडिहिदिभुजगारसंकमे एयजीवेण अंतरं ३७५ सव्वलहुं मिच्छत्तं गंतूण तेणेब कमेण पडिणियत्तिय भुजगारावट्ठिदसंकामयपजाएग परिणदम्मि तदुवलंभादो। एदेसिमुक्कस्संतरं उवरि भणामि त्ति थप्पं काऊणप्पयरजहण्णंतरं ताव परूवेदुकामो सुत्तमुत्तरमाह * अप्पयरसंकामयंतरं जहणणेणेयसमयो । ७७३. भुजगारावट्ठिदाणमण्णदरेणंतरिदस्स तदुवलद्धीदो। एदस्स वि उकस्संतमेरबं चेव ठविय अवत्तव्यसंकामयजहण्णंतरपरूवट्ठमिदमाह * अवत्तव्वसंकामयंतरं जहएणेण फलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो। ७७४. पढमसम्मत्तुप्पत्तिविदियसमए अवत्तव्वसंकमस्सादि कादणंतरिदस्स सव्वलहुं मिच्छत्तं गंतूण जहण्णुव्वेल्लणकालभंतरे तदुभयमुव्वेल्लिय चरिमफालिपदणाणंतरसमए सम्मत्तं पडिवण्णस्स विदियसमयम्मि तदंतरपरिसमत्तिदंसणादो। एवं जहण्णंतराणि परूविय सव्वेसिमुक्कस्संतरमिदाणिं परूवेमाणो सुत्तमुत्तरमाह__ उकस्सेण सव्वेसिमद्धपोग्गलपरियट्ट देसूर्ण। $ ७७५. अद्धपोग्गलपरियट्टादिसमए पढमसम्मत्तमुप्पाइय विदियसमए अवत्तव्वस्स संकमस्सादिं करिय तदणंतरसमए तदणंतरमुप्पादिय अंतोमुहुत्तेण भुजगारावद्विदाणं पि समयाविरोहेणंतरस्सादि काऊण सव्वलहुअकालपडिबधुव्वेल्लणावावारेण चरिमफिर अल्पतरपदसे अन्तरित करके अतिशीघ्र मिथ्यात्वमें जाकर उसी क्रमसे निवृत्त होकर भुजगार और अवस्थितसंक्रमपर्यायसे परिणत होनेपर उक्त अन्तरकाल उपलब्ध होता है। इनका उत्कृष्ट अन्तर आगे कहेंगे इसलिए स्थगित करके सर्वप्रथम अल्पतरपदके जघन्य अन्तरको कहनेकी इच्छासे आगेका सूत्र कहते हैं * अल्पतरसंक्रामकका जघन्य अन्तरकाल एक समय है। ६७७३ भुजगार और अवस्थित इनमेंसे किसी एकके द्वारा अन्तरको प्राप्त हुए उसका उक्त अन्तरकाल प्राप्त होता है। इसके भी उत्कृष्ट अन्तरकालको उसीप्रकार स्थगित करके अवक्तव्यसंक्रामकके जघन्य अन्तरका कथन करनेके लिए इस सूत्रको कहते हैं * अवक्तव्यसंक्रामकका जघन्य अन्तर पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है। ६७७४. प्रथम सम्यक्त्वकी उत्पत्तिके दूसरे समयमें अवक्तव्यसंक्रमका प्रारम्भ करनेके बाद अन्तरको प्राप्त हुए जीवके अतिशीघ्र मिथ्यात्वमें जाकर जघन्य उद्वेलनाकालके भीतर उक्त दोनों प्रकृतियोंकी उद्वेलना करके अन्तिम फालिके पतनके अनन्तर समयमें सम्यक्त्वको प्राप्त होनेके द्वितीय समयमें उसके अन्तरकी समाप्ति देखी जाती है। इसप्रकार जघन्य अन्तरोंका कथन करके इस समय सब पदोंके उत्कृष्ट अन्तरका कथन करते हुए आगेके सूत्रको कहते हैं * सब पदोंका उत्कृष्ट अन्तर अर्धपुद्गल परिवर्तनप्रमाण है। ६७७५. अर्धपुद्गलपरिवर्तनके प्रथम समयमें प्रथम सम्यक्त्वको उत्पन्न करके दूसरे समयमें प्रवक्तव्यसंक्रमका प्रारम्भ करके तथा उसके अगले समयमें उसका अन्तर उत्पन्न करके, अन्तर्मुहूर्त बाद भुजगार और अवस्थितपदोंके अन्तरका भी यथाविधि प्रारम्भ करके अतिलघुकालसे प्रतिबद्ध उद्वेलनाके व्यापार द्वारा अम्तिम फालिके पतनके बाद अल्पतरसंक्रमका भी अन्तर कराकर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001414
Book TitleKasaypahudam Part 08
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages442
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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