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________________ ३७० जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ बंधगो ६ * णवरि अवत्तव्वसंकामया जहएणुकस्सेण एयसमो । 5 ७६२. मिच्छत्तस्स अवत्तव्वसंका० णत्थि त्ति उत्तं । एदेसि पुण विसंजोयणादो सव्वोवसामणादो च परिवदंतं पडुच्च अत्थि अवत्तव्वसंकमो । सो च जहण्णुकस्सेणेयसमयमेत्तकालभाविओ ति एत्तिओ चेव विसेसो, णाण्णो त्ति वुत्तं होइ। एवमेयजीवेण कालो ओघेण परूविदो। ___६७६३. एत्तो आदेसपरूवणटुं सुत्तसूचिदमुच्चारणं वत्तइस्सामो। तं जहाआदेसेण णेरइय० मिच्छ०-बारसक०-णवणोक. भुज०संका० केवचिरं० १ जह० एयसमओ, उक्क० मिच्छत्तस्स तिण्णि समया, सेसाणमट्ठारस समया। णवरि इत्थिपुरिस०-हस्स-रईणं भुज० जह० एयसमओ, उक्क० सत्तारस समया। अप्पदर० जह० एयसमओ, उक्क० तेत्तीसं सागरो० देसूणाणि । अवट्ठिद० ओघभंगो । एवमणंताणु०४ । णवरि अवत्त० जहण्णु० एयसमओ । सम्मत्त-सम्मामि० भुज-अवढि०-अवत्त० ओघं । अप्पदर० मिच्छत्तभंगो। एवं पढमाए। णवरि सव्वेसिमप्पदर. सगद्विदी देसूणा । विदियादि जाव सत्तमि त्ति एवं चेव । णवरि मिच्छ० भुज० उक्क० वेसमया, कसायणोक० सत्तारस समया। ___ * किन्तु इतनी विशेषता है कि अवक्तव्यसंक्रामकोंका जघन्य और उत्कृष्ट काल . एक समय है। ६७६२. मिथ्यात्वके अवक्तव्य संक्रामक जीव नहीं हैं यह कह आये हैं। किन्तु इन कर्मों का विसंयोजनासे और सर्वोपशामनासे गिरते हुए जीवकी अपेक्षा अवक्तव्यसंक्रम है और वह जघन्य तथा उत्कृष्टरूपसे एक समयभावी है। इसप्रकार इतना ही विशेष है, अन्य विशेष नहीं है यह उक्त कथनका तात्पर्य है। इस प्रकार ओघसे एक जीवकी अपेक्षा कालका कथन किया। ६७६३. आगे आदेशका कथन करने के लिए सूत्रसे सूचित हुए उच्चारणाको बतलाते हैं। यथा-आदेशसे नारकियोंमें मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायोंके भुजगारसंक्रामकका कितना काल है ? जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल मिथ्यात्वका तीन समय है तथा शेषका अठारह समय है। किन्तु इतनी विशेषता है कि स्त्रीवेद, पुरुषवेद, हास्य और रतिके भुजगारसंक्रामकका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल सत्रह समय है। अल्पतरसंक्रामकका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल कुछ कम तेतीस सागर है । अवस्थित संक्रामकका भंग ओघके समान है। इसीप्रकार अनन्तानुबन्धीचतुष्कका जानना चाहिए । किन्तु इतनी विशेषता है कि अवक्तव्यसंक्रामकका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके भुजगार, अवस्थित और अवक्तव्यसंक्रामकका भंग ओघके समान है । अल्पतरसंक्रामकका भंग मिथ्यात्वके समान है। इसीप्रकार पहिली पृथिवीमें जानना चाहिए। किन्तु इतनी विशेषता है कि सब प्रकृतियोंके अल्पतरसंक्रामकका उत्कृष्ट काल कुछ कम अपनी स्थितिप्रमाण है। दूसरी पृथिवीसे लेकर सातवीं पृथिवीतक इसीप्रकार भंग है। किन्तु इतनी विशेषता है कि मिथ्यात्वके भुजगारसंक्रामकका उत्कृष्ट काल दो समय है। तथा कषायों और नोकषायोंका सत्रह समय है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001414
Book TitleKasaypahudam Part 08
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages442
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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