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________________ ३६६ गा०५८] उत्तरपयडिट्ठिदिभुजगारसंकमे एवजीवेण कालो सगजीविदद्धाचरिमावलियाए उवरि सत्तारस समया अहिया अस्थि ति अद्धाक्खएण माणादीणं परिवाडीए पण्णारससु समएसु भुजगारेण बंधवुद्धि काऊण जहाकममेव बंधावलियादीदं कोहे पडिच्छ्यि पुणो चरिम-दुचरिमसमएसु विवक्खियकोहस्स अद्धासंकिलेसक्खएहि भुजगारबंधमणुपालिय तदो भवक्खएण सण्णिपंचिदिएसु विग्गहं काऊणेयसमयमसण्णिसमाणहिदिं बंधिऊण सरीरं गहिऊण सणिहिदिबंधेण परिणदो । तदो आवलियादीदं जहाकम संकामेमाणस्स एगूणवीसभुजगारसमया लद्धा होति । एवं सेसकसाय-णोकसायाणं । णवरि णोकसायाणं भण्णमाणे पुव्वुत्तसत्तारससमयाहियचरिमावलियाए आदीदो पहुडि सोलससमएमु कसायाणमद्धाक्खएण परिवाडीए द्विदिबंधमण्णोप्रणादिरित्तं वड्डाविय पुणो सत्तारससमए संकिलेसक्खएण सव्वेसिमेव समगं भुजगारबंधं कादण तेणेव कमेण बंधावलियादीदं णोकसाएसु पडिच्छिय तदो कालं कादण पुव्वं व असण्णि-सण्णिट्ठिदि बंधिय बंधसंकमणावलियवदिक्कमे ताए चेव परिवाडीए संकामेमाणस्स तेसिं पयदुक्कस्सकालसमुप्पत्ती वत्तव्वा । 8 सेसपदाणि मिच्छत्तभंगो। ६ ७६१. अप्पयरसंकामयस्स जहण्णेणेयसमओ, उक्क० तेवट्ठिसागरोवमसदं सादिरेयं । अवद्विदपदस्स वि जहण्णकालो एगसमयमेत्तो, उक्कस्सो अंतोमुहुत्तपमाणो त्ति एवमेदेण भेदाभावादो । सत्रह समय अधिक रहने पर श्रद्धाक्षयसे मानादिककी परिपाटीक्रमसे पन्द्रह समय तक भुजगाररूपसे बन्धवृद्धि करके यथाक्रमसे ही बन्धावलिके बाद क्रोधमें संक्रमित करके पुनः अन्तिम समयमें और उपान्त्य समयमें विवक्षित क्रोधका अद्धाक्षय और संक्लेशक्षयसे भुजगारबन्धका पालन कर अनन्तर भवक्ष्यसे संज्ञी पञ्चेन्द्रियोंमें विग्रह करके एक समय तक असंज्ञीके समान स्थितिका बन्ध करके तथा शरीरको ग्रहण कर संज्ञीके योग्य स्थितिबन्धरूपसे परिणत हुआ। फिर एक आवलिके बाद क्रमसे संक्रम करनेवाले जीवके भजगारसंक्रमके उन्नीस समय प्राप्त होते हैं। इसी प्रकार शेष कषायों और नोकषायोंके भुजगारसंक्रमके उन्नीस समय होते हैं। किन्तु इतनी विशेषता है कि नोकषायोंका उक्त काल कहने पर पूर्वोक्त सत्रह समय अधिक अन्तिम आवलिके प्रारम्भसे लेकर सोलह समयोंमें कषायोंके अद्धाक्षयसे क्रमसे स्थितिबन्धको परस्पर अधिक अधिक बढ़ाकर पुनः सत्रहवें समयमें संक्लेशक्षयसे सभीका समान भुजगारबन्ध करके उसी क्रमसे बन्धावलिके बाद नोकषायोंमें संक्रमित करके अनन्तर मरकर पहिलेके समान असंज्ञी और संज्ञीके योग्य स्थितिको बाँधकर बन्धावलि और संक्रमावलिके व्यतीत होने पर उसी क्रमसे संक्रम करनेवाले जीवके नौ नोकषायोंकी प्रकृत उत्कृष्ट कालकी उत्पत्ति कहनी चाहिए। * शेष पदोंका भंग मिथ्यात्वके समान है। 5७६१. क्योंकि अल्पतरसंक्रामकका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल साधिक एक सौ बेसठ सागर है। अवस्थितपदका भी जधन्य काल एक समयमात्र है और उत्कृष्ठ काल अन्तर्मुहूर्तप्रमाण है, इसप्रकार इस कालसे प्रकृतमें कोई भेद नहीं है । ४७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001414
Book TitleKasaypahudam Part 08
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages442
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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