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________________ ०५८ ] उत्तरपयडिडिदिभुजगा रकमेएयजीवेण कालो ३६७ विदियसमयम्मि भुजगारसंकमो होदूण तदणंतरसमए अप्पदरसंकमो जादो । लद्धो जणुकस्सेणेगसमयमेत्तो भुजगारसंकामयकालो । एवमवडिदसंकमस्स वि । णवरि समयुत्तरमिच्छत्तट्ठिदिसंतकम्मिएण वेदगसम्मत्ते पडिवणे विदियसमयम्मि तदुवलंभो वत्तव्वो । एवमवत्तव्वसंकमस्स वि वत्तव्वं । णवरि णिस्संतकम्मियमिच्छाइट्ठिणा उवसमसम्मत्ते गहिदे विदियसमयम्मि तदुवलद्धी होदि । * अपदरसंकामच केवचिरं कालादो होदि ? ९ ७५७, सुगमं । * जहणेणंतोमुहुत्तं, उक्कस्सेण वेलावट्टिसागरोवमाणि सादिरेयाणि । ९ ७५८, एत्थ ताव जहण्णकालपरूवणा कीरदे - एगो मिच्छाइट्ठी पुव्वुत्तेहिं तीहिं पयारेहिं सम्मत्तं घेत्तूण विदियसमए भुजगारावद्विदावत्तव्वाण मण्णदरसंकमपजाएण परिणमिय तदियसमए अप्पयरसंकामयत्तमुवगओ, सव्वजहणणेण कालेन मिच्छत्तं गओ, जहणकालाविरोहेण संकिलिट्ठो सम्मत्तद्विदीए उवरि मिच्छत्तट्ठिदिं तप्पा ओग्गवडीए वड्डाविय सव्वलहुं सम्मत्तं पडिवण्णो, भुजगारसंकमेण अवद्विदसंकमेण वा परिणदो ति तस्स अंतोमुहुत्तमेत्तो सम्मत्त - सम्मामिच्छत्ताणमप्पदरसं० जहण्णकालो होइ | अहवा सम्मत्तं पडिवजय अंतोमुहुत्तमप्पदरसरूवेण सम्मत्त सम्मामिच्छत्ताणं ट्ठिदिसंक्रममणु तदनन्तर समय में अल्पतरसंक्रम होता है । इसी प्रकार इनके भुजगार संक्रमका : जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय प्राप्त हुआ । इसी प्रकार एक समय अवस्थितसंक्रमका भी प्राप्त होता है । किन्तु इतनी विशेषता है कि एक समय अधिक मिध्यात्वके स्थितिसत्कर्मवाले जीवके द्वारा वेदकसम्यक्त्व प्राप्त करने पर दूसरे समय में उसकी प्राप्ति कहनी चाहिए । इसीप्रकार अवक्तव्यसंक्रमका भी कहना चाहिए। किन्तु इतनी विशेषता है कि उक्त दोनों प्रकृतियोंके सत्कर्म से रहित मिध्यादृष्टि जीवके द्वारा उपशमसम्यक्त्व के ग्रहण करने पर दूसरे समयमें उसकी उपलब्धि होती है । * अल्पतरसंक्रामकका कितना काल है ? $ ७५७. यह सूत्र सुगम है । * जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल साधिक दो छयासठ सागरप्रमाण है । $ ७५८. यहाँ पर सर्वप्रथम जघन्य कालका कथन करते हैं— कोई एक मिध्यादृष्टि जीव पूर्वोक्त तीन प्रकार से सम्यक्त्वको ग्रहण कर दूसरे समय में भुजगार, अवस्थित और अवक्तव्य इनमें से किसी एक पर्यायरूपसे परिणत होकर तीसरे समय में अल्पतरसंक्रमपनेको प्राप्त हुआ । पुनः सबसे जघन्य काल द्वारा मिथ्यात्वको प्राप्त हुआ। फिर जघन्य कालमें विरोध न पड़े इस विधिसे संक्लिष्ट होकर सम्यक्त्वकी स्थिति के ऊपर मिथ्यात्वकी स्थितिको बढ़ाकर अतिशीघ्र सम्यक्त्वको प्राप्त हुआ। फिर भुजगार संक्रमरूपसे या अवस्थितसंक्रमरूपसे परिणत हुआ । इस प्रकार उसके सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व के अल्पतरसंक्रमका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्तप्रमाण प्राप्त हुआ । अथवा सम्यक्त्वको प्राप्त करके अन्तर्मुहूर्त काल तक सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका अल्पतररूपसे स्थितिसंक्रमका पालन करके अतिशीघ्र दर्शनमोहनीयकी क्षपणा में व्यापृत हुए Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001414
Book TitleKasaypahudam Part 08
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages442
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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