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________________ ३६६ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [बंधगो ६ पमाणादो पढमसमयसम्माइट्ठिम्मि तद्विदीणमघट्टिदिगलणेण समयूणत्तदंसणादो। तदो तत्थ णिसेयसंकमवुड्डीए वि कालपरिहाणिलक्षणो संकमस्स अप्पयरभावो चेवे त्ति । ण च एवंविहा विवक्खा सुत्ते ण दीसइ त्ति संकणिज्जं; उवसमसम्माइडिम्मिाणिसेयावेक्खाए अवट्ठियसंकममपरूविय कालपरिहाणिवसेणप्पयरसंकमपरूवयम्मि सुत्तम्मि तदुवलंभादो। तदो सम्मामिच्छत्ते पडिवजाविदे वि ण दोसो त्ति सिद्धं । ॐ अवट्ठिदसंकामओ केवचिरं कालादो होदि ? ६ ७५३. सुगमं । ॐ जहणणेयसमो, उकस्सेणंतोमुहुत्तं । ६ ७५४. कुदो ? एयट्ठिदिबंधावट्ठाणकालस्स जहण्णुकस्सेणेयसमयमंतोमुहुत्तमेत्तपमाणोवलंभादो। ॐ सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणं भुजगार अवविद-अवत्तव्वसंकामया केवचिरं कालादो होंति ? ७५५. सुगममेदं पुच्छासुत्तं । * जहएणुकस्सेणेयसमझो। $ ७५६. भुजगारसंकमस्स ताव उच्चदे-तप्पाअोग्गसम्मत्त-सम्मामिच्छत्तट्ठिदिसंतकम्मियमिच्छाइट्ठिणा तत्तो दुसमउत्तरादिमिच्छत्तट्ठिदिसंतकम्मिएण सम्मत्ते पडिवण्णे सम्यग्दृष्टिके उसकी स्थितियोंमें अधःस्थितिगलनाके आलम्बनसे एक समय कमपना देखा जाता है, इसलिए वहाँ निषेकसंक्रममें वृद्धि होने पर भी संक्रमका कालपरिहानिलक्षण अल्पतरपना ही है । सूत्रमें इसप्रकारकी विवक्षा नहीं दिखलाई देती ऐसी आशंका करना भी ठीक नहीं है, क्योंकि उपशम सम्यग्दृष्टिके निषेकोंकी अपेक्षा अवस्थितसंक्रमका कथन न करके कालपरिहानिके आलम्बन द्वारा अल्पतरसंक्रमका कथन करनेवाले सूत्र में उक्त विवक्षा उपलब्ध होती है, इसलिए सम्यग्मिथ्यात्वको प्राप्त कराने पर भी दोष नहीं है यह सिद्ध हुआ। * अवस्थितसंक्रामकका कितना काल है ? ६७५३. यह सूत्र सुगम है। * जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। ६ ७५४. क्योंकि एक समान स्थिति के बन्धका अवस्थान काल जघन्यसे एक समय और उत्कृष्टसे अन्तर्मुहूर्तप्रमाण उपलब्ध होता है। * सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके भुजगार, अवस्थित और अवक्तव्यपदके संक्रामकोंका कितना काल है ? ६७५५. यह पृक्षासूत्र सुगम है। * जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । 6 ७५६. भुजगारसंक्रमका पहिले कहते हैं-जो तत्प्रायोग्य सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके स्थितिसत्कर्मसे युक्त है और जो उनकी स्थितिसे मिथ्यात्वकी दो समय अधिक आदि स्थितिसे युक्त है ऐसे मिथ्यादृष्टि जीवके सम्यक्त्वको प्राप्त होने पर दूसरे समयमें भुजगारसंक्रम होकर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001414
Book TitleKasaypahudam Part 08
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages442
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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