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________________ ३६२ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [बंधगो ६ विदियसमयम्मि तदुवलंभादो। अणंताणुबंधीणं पि विसंजोयणापुव्वसंजोगे अवसेसाणं च सव्वोवसामणादो परिवदमाणगस्स देवस्स वा पढमसमयसंकामगस्स अवत्तव्वसंकमसंभवादो । एवमोघेण सामित्तपरूवणा कया। ___ ७४६. आदेसेण मणुसतिए ओघभंगो। णवरि बारसक०-णवणोकसायअवत्तव्वपढमसमयदेवालावो ण कायव्यो । सेससव्वमग्गणासु द्विदिविहत्तिभंगो । * कालो । 5 ७४७. अहियारसंभालणसुत्तमेदं । ॐ मिच्छत्तस्स भुजगारसंकामगो केवचिरं कालादो होदि ? ६७४८. सुगम। ॐ जहरणेण एयसमओ, उक्कस्सेण चत्तारि समया। $ ७४९. एत्थ ताव जहण्णकालपरूवणा कीरदे-एगो हिदिसंतकम्मस्सुवरि एयसमयं बंधवुड्डीए परिणदो विदियादिसमएसु अवट्ठिदमप्पयरं वा बंधिय बंधावलियादीदं संकामिय तदणंतरसमए अवट्ठिदमप्पदरं वा पडिवण्णो लद्धो मिच्छत्तद्विदीए भुजगारसंकामयस्स जहण्णेणेयसमओ, उक्क० चदुसमयपरूवणा। तं जहा-एइंदिओ अद्धाखय'संकिलेसक्खएहिं दोसु समएसु भुजगारबंधं कादृण तदो से काले सण्णिदूसरे समयमें सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका अवक्तव्यसंक्रम देखा जाता है। अनन्तानुबन्धियोंका भी विसंयोजनापूर्वक संयोग होने पर तथा अवशेष प्रकृतियोंका सर्वोपशामनासे गिरनेवाले जीवके या प्रथम समयमें संक्रम करनेवाले देवके अवक्तव्यसंक्रम सम्भव है। इस प्रकार ओघसे स्वामित्वकी प्ररूपणा की। ___६७४६. आदेशसे मनुष्यत्रिकमें ओघके समान भंग है। किन्तु इतनी विशेषता है कि इनमें बारह कषाय और नौ नोकषायोंका अवक्तव्यपद प्रथम समयवर्ती देवके होता है यह आलाप नहीं करना चाहिये । शेष सब मार्गणाओंमें स्थितिविभक्तिके समान भंग है। * कालका अधिकार है। ६७४७. अधिकारकी सम्हाल करनेवाला यह सूत्र है। * मिथ्यात्वके भुजगारसंक्रामकका कितना काल है । 6७४८. यह सूत्र सुगम है। * जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल चार समय है। ६७४६. यहाँ सर्वप्रथम जघन्य कालकी प्ररूपणा करते हैं-कोई एक जीव स्थितिसत्कर्मके ऊपर एक समय तक बन्धकी वृद्धिसे परिणत हुआ तथा द्वितीयादि समयोंमें अवस्थित या अल्पतर बन्ध करके बन्धाबलिके वाद भुजगारसंक्रम करके तदनन्तर समयमें अवस्थित या अल्पतरसंक्रमको प्राप्त हुआ। इस प्रकार मिथ्यात्वकी स्थितिके भुजगारसंक्रामकका जघन्य काल एक समय प्राप्त हुआ। अब उत्कृष्ट काल चार समयकी प्ररूपणा करते हैं । यथा-किसी एकेन्द्रिय जीवने श्रद्धाक्षय और संक्लेशक्षयसे दो समय तक भुजगारबन्ध किया। तदनन्तर अगले समयमें संज्ञी पश्चन्द्रियों में १. ता प्रतौ श्रद्धाख [व] य- प्रा०प्रतौ श्रद्धाखवय- इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001414
Book TitleKasaypahudam Part 08
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages442
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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