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________________ गा०५८] उत्तरपयडिटिदिसंकमे भुजगारे सामित्तं ३६१ _ ७४३. एत्थण्णदरणिदेसेण णेरइओ तिरिक्खो मणुस्सो देवो वा त्ति गहियव्वं, सव्वत्थ सामित्तस्साविरोहादो। ओगाहणादिविसेसपडिसेहटुं च अण्णदरणिद्देसो । एत्थ भुजगारावट्ठिदसंकामगो मिच्छाइट्ठी चेव अप्पदरसंकामगो पुण अण्णदरो मिच्छाइट्ठी सम्माइट्ठी वा होइ त्ति घेत्तव्वं ।। ॐ अवत्तव्वसंकामो पत्थि । ७४४. असंकमादो संकमो अवत्तव्वसंकमो णाम । ण च मिच्छत्तस्स तारिससंकमसंभवो, उवसंतकसायस्स वि तस्सोकड्डणापरपयडिसंकमाणमत्थित्तदंसणादो। के एवं सेसाणं पयडीणं एवरि अवत्तव्वया अस्थि । ७४५. एवं सेसाणं पि सम्मत्तादिपयडीणं भुजगारादिविसयं सामित्तमणुगंतव्वं, अण्णदरसामिसंबंधं पडि मिच्छत्तपरूवणादो विसेसाभावादो। णवरि सम्मत्त-सम्मा- . मिच्छत्ताणं भुजगारस्स अण्णदरो सम्माइट्ठी, अप्पदरस्स मिच्छाइट्ठी सम्माइट्ठी वा, अवडिदस्स पुव्वुप्पणादो सम्मत्तादो समयुत्तरमिच्छत्तसंतकम्मियविदियसमयसम्माइट्ठी सामी होइ त्ति विसेसो जाणियव्वो। अण्णं च अवत्तव्वया अत्थि, सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणमणादियमिच्छाइट्टिणा उव्वेल्लिदतदुभयसंतकम्मिएण वा सम्मत्ते पडिवण्णे ६७४३. यहाँ सूत्रमें 'अन्यतर' पदके निर्देश द्वारा नारकी, तिर्यञ्च, मनुष्य अथवा देव मिथ्यात्वके उक्त पदोंका संक्रामक है ऐसा ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि सर्वत्र स्वामित्वके प्राप्त होनेमें विरोधका अभाव है। अवगाहना आदि विशेषका निषेध करनेके लिए 'अन्यतर' पदका निर्देश किया है। यहाँ पर भुजगार और अवस्थितपदका संक्रामक मिथ्यादृष्टि ही होता है। परन्तु अल्पतरपदका संक्रामक मिथ्यादृष्टि और सम्यग्दृष्टि दोनों होते हैं ऐसा ग्रहण करना चाहिए। * मिथ्यात्वके अवक्तव्यपदका संक्रामक नहीं है। ६७४४. असंक्रमसे संक्रम होना अवक्तव्यसंक्रम है। परन्तु मिथ्यात्वका इस प्रकारका संक्रम सम्भव नहीं है, क्योंकि उपशान्तकषाय जीवके भी मिथ्यात्वके अपकर्षण और परप्रकृति संक्रमका अस्तित्व देखा जाता है। * इसी प्रकार शेष प्रकृतियोंका स्वामित्व है। किन्तु इतनी विशेषता है कि इनके अवक्तव्यसंक्रमवाले जीव हैं। ६७४५. इसी प्रकार शेष सम्यक्त्व प्रादि प्रकृतियोंका भी भुजगार आदि पदविषयक स्वामित्व जानना चाहिए, क्योंकि अन्यतर जीव स्वामी है इस अपेक्षासे मिथ्यात्वकी प्ररूपणासे इस प्ररूपणामें कोई भेद नहीं है । इतनी विशेषता है कि सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके भुजगारपदका अन्यतर सम्यग्दृष्टि जीव स्वामी है। अल्पतरपदका. मिथ्यादृष्टि और सम्यग्दृष्टि जीव स्वामी है। तथा अवस्थितपदका पूर्वमें उत्पन्न हुए सम्यक्त्वसे एक समय अधिक मिथ्यात्वका सत्कर्मवाला द्वितीय समयमें स्थित सम्यग्दृष्टि जीव स्वामी है इतना विशेष यहाँ जानना चाहिए। इतना और है कि इनके प्रवक्तव्य पदबाले जीव हैं, क्योंकि अनादि मिथ्यादृष्टि जीवोंके अथवा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व इन दोनों प्रकृतियोंके सत्कमकी उद्वेलना कर चुके जीवोंके सम्यक्त्वको प्राप्त होनेपर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001414
Book TitleKasaypahudam Part 08
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages442
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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