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________________ २४ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [बंधगो ६ एदेहि चदुहि वि पुव्वद्धपडिबद्धसुत्तावयवेहि एगेगपयडिसंकमो पयडिट्ठाणसंकमो चेदि वे णिग्गमा परूविदा। ___ * 'संकमपडिग्गहविहि' त्ति संकमे पयडिपडिगहो। ४९. संकमे संकमस्स वा पडिग्गहविही संकमपडिग्गहविहि त्ति एत्थ समासो पयडीए त्ति अहियारसंबंधो च कायव्यो । सेसं सुगमं ।। & 'पडग्गिो उत्तम जहणणो' ति पयडिहाणपडिग्गहो । ६५०. कुदो ? जहण्णुकस्सवियप्पाणमण्णत्थासंभवादो। एवमेदीए विदियगाहाए एगेगपयडिसंकमो पयडिट्ठाणसंकमो पयडिपडिग्गहो पयडिट्ठाणपडिग्गहो च मुत्तकंठं परूविदा। तप्पडिवक्खा वि चत्तारि णिग्गमा देसामासियभावेण सूचिदा त्ति घेत्तव्यं । संपहि एदेसिं चेव अट्ठण्णं णिग्गमाणं फुडीकरणटुं तदियगाहाए पदच्छेदो कीरदे * 'पयडि-पयडिहाणेसु संकमो' त्ति पयडिसंकमो पयडिहाणसंकमो च । प्रकृतिकी विवक्षामें ये जघन्य आदि भेद नहीं हो सकते । इसलिये गाथासूत्रके पूर्वार्धसे सम्बन्ध रखने. वाले इन चारों ही पदोंके द्वारा एकैकप्रकृतिसंक्रम और प्रकृतिस्थानसंक्रम ये दा निर्गम कहे गये हैं। विशेषार्थ-गाथाका पूर्वार्ध इस प्रकार है-'एक्केक्काए संकमो दुविहो-संकमविही य पयडीए । इसका निम्न प्रकारसे अन्वय करना चाहिये-पयडीए संकमो दुविहो-एक्केक्काए पयडीए संकमो संकमविही य । इस अन्वयमें 'पयडीए संकमो' इन दो पदोंका दो वार अन्वय किया गया है। तदनुसार गाथाके इस पूर्वार्धका यह अर्थ हुआ कि प्रकृतिसंक्रम दो प्रकारका हैएकैकप्रकृतिसंक्रम और प्रकृतिस्थानसंक्रम । यहाँ 'संक्रमविही' इस पदका प्रकृतिस्थानसंक्रम इतना अर्थ लिया गया है, क्यों कि इस पदमें आया हुआ 'विधि' शब्द प्रकारवाची है जिससे उक्त अर्थ प्राप्त हो जाता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है। * 'संकमपडिग्गहविही' इस पदसे संक्रमके विषयमें प्रकृतिप्रतिग्रहका ग्रहण किया है। ४६ संक्रममें या संक्रमकी प्रतिग्रह विधि संक्रमप्रतिग्रहविधि इस प्रकार यहाँपर समास करके 'पयडीए' इस पदका अधिकारवश सम्बन्ध करना चाहिये । शेष कथन सुगम है। * 'पडिग्गहो उत्तम जहण्णो' इस पदसे प्रकृतिस्थानप्रतिग्रहका ग्रहण किया है। ६५० क्योंकि जघन्य और उत्कृष्ट ये विकल्प अन्यत्र सम्भव नहीं हैं। इस प्रकार इस दूसरी गाथा द्वारा एककप्रकृतिसंक्रम, प्रकृतिस्थानसंक्रम, प्रकृतिप्रतिग्रह और प्रकृतिस्थानप्रतिग्रह इन चार निर्गमोंका मुक्तकण्ठ होकर कथन किया गया है । तथा इनके प्रतिपक्षभूत चार अन्य निर्गम भी देशामर्षकभावसे सूचित किये गये हैं ऐसा यहाँ ग्रहण करना चाहिये । आशय यह है कि यद्यपि इस दूसरी गाथा द्वारा चार निर्गमोंका ही सूचन किया है किन्तु यह गाथा देशामर्षक है, अतः इससे इनके प्रतिपक्षभूत चार अन्य निर्गमोंका भी ग्रहण हो जाता है। अब इन्हीं आठों निर्गमोंका स्पष्टीकरण करनेके लिये तीसरी गाथाका पदच्छेद करते हैं___* ‘पयडि-पयडिट्ठणेसु संकमो' इस द्वारा प्रकृतिसंक्रम और प्रकृतिस्थानसंक्रम का ग्रहण किया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001414
Book TitleKasaypahudam Part 08
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages442
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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