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________________ गा० ५८] उत्तरपयडिटिदिसंकमे णाणाजीवेहिं अंतरं ३४१ छण्णोकभंगो । आदेसेण सव्वणेरइय-सव्वतिरिक्ख०-सव्वदेवा हिदिविहत्तिभंगो । मणुसअपज० मिच्छ०-सोलसक०-भय-दुगुंछ० जह० द्विदिसं० जह० एयस०, उक्क० आवलि० असंखे भागो । अज० जह० आवलिया समयूणा, उक्क० पलिदो० असंखे०भागो। सम्म०-सम्मामि०-सत्तणोक० द्विदिविहत्तिभंगो । एवं जाव० । ६६९०. अंतरं दुविहं-जह० उक्क० । उक्क० द्विदिविहत्तिभंगो । जहण्णए पयदं । दुविहो णिद्देसो-ओघेण आदेसेण य। ओघेण दंसणतिय-णवकसाय-इत्थिवेद०-छण्णोक० जह० द्विदिसंका० जह० एयसमओ, उक्क० छम्मासं। अणंताणु०४ जह० हिदिसंका० जह० एयसमओ, उक्क० चउवीसमहोरत्ते सादिरेये। पुरिसवेद-तिण्णिसंजल. जह० द्विदिसं० जह० एयसमओ, उक्क. वासं सादिरेयं । णवंस० जह० ट्ठिदिसं० जह० एयसमओ, उक्क० वासपुधत्तं । सव्वासिमजह० द्विदिसंका० णत्थि अंतरं । एवं मणुसतिए । णवरि मणुसिणीसु खवयपयडीणं वासपुधत्तं । सेससव्वमग्गणासु विहत्तिभंगो। पुरुषवेदका भंग छह नोकषायोंके समान है। आदेशसे सब नारकी, सब तिर्यञ्च और सब देवोंमें स्थितिविभक्तिके समान भंग है । मनुष्य अपर्याप्तकोंमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय और जुगुप्सा के जघन्य स्थितिसंक्रमका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है । अजघन्य स्थितिसंक्रमका जघन्य काल एक समय कम एक आवलिप्रमाण है और उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है। सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व और सात नोकषायोंका भंग स्थितिविभक्तिके समान है। इस प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए। ६६६०. अन्तर दो प्रकारका है-जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्टकाभंग स्थितिविभक्तिके समान है। जघन्यका प्रकरण है। निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे तीन दर्शनमोहनीय, नौ कपाय, स्त्रीवेद और छह नोकषायोंके जघन्य स्थितिसंक्रामकका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर छह महीना है। अनन्तानुबन्धीचतुष्कके जघन्य स्थितिसंक्रामकका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक चौबीस दिन-रात है। पुरुषवेद और तीन संज्वलनके जघन्य स्थितिसंक्रामकका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक एक वर्ष है। नपुंसकवेदके जघन्य स्थितिसंक्रामकका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर वर्षपृथकत्व है। सब प्रकृतियोंके अजघन्य स्थितिसंक्रामकका अन्तरकाल नहीं है। इसी प्रकार मनुष्यत्रिकमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि मनुष्यिनियोंमें क्षपक प्रकृतियोंका उत्कृष्ट अन्तर वर्षपृथक्त्व है। शेष सब मार्गणाओंमें स्थितिविभक्तिके समान भंग है । विशेषार्थ-क्षपकश्रेणिका और क्षायिक सम्यग्दर्शनकी प्राप्तिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर छह महीना है। इसलिए यहाँ पर तीन दर्शनमोहनीय आदि १६ प्रकृतियों के जघन्य स्थितिसंक्रमका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर छह महीना कहा है। इन प्रकृतियोंमें स्त्रीवेदको गिनानेका कारण यह है कि इस प्रकृतिकी परोदय और स्वोदय दोनों प्रकारसे क्षपणा होने पर अन्तमें जघन्य स्थितिसंक्रम होता है। सम्यकत्वकी प्राप्तिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक चौबीस दिन-रात है। तदनुसार यह अन्तर अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विसंयोजनाका भी जानना चाहिए। इसलिए यहाँ पर अनन्तानन्धीचतुष्कके जघन्य स्थितिसंक्रमका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर साधिक चौबीस दिन-रात कहा है। क्रोधादि तीन संज्वलन और पुरुषवेदके उदयसे आपकनेणिपर चढ़नेका जघन्य अन्तर एक समय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001414
Book TitleKasaypahudam Part 08
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages442
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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