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________________ ३३६ गा० ५८] उत्तरपयडिट्ठिदिसंकमे णाणाजीवहिं कालो पयदुक्कस्सकालसमुप्पत्ती वत्तव्वा । सव्वासिं पयडीणमिदि वयणेण सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणं पिपलिदोवमासंखभागपमाणुकस्सहिदिसंकमुक्कस्सकालाइप्पसंगे तप्पडिसेहमुहेण तत्थ विसेसं पदुप्पायणमिदमाह ॐ णवरि सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणमुक्कस्सहिदिसंकमो केवचिरं कालादो होदि १ जहएणेण एयसमो, उक्कस्सेण प्रावलियाए असंखेज दिभागो। ६८४. कथमेदस्सुप्पत्ती ? वुच्चदे-एयवारमुवकंताणमेयसमओ चेव लब्भइ त्ति तमेयसमयं ठविय आवलि० असंखे०भागमेत्तुवकमणवारेहि णिरंतरमुवलब्भमाणसरूवेहि गुणिदे तदुवलंभो होइ । एवमोघेणुकस्सट्ठिदिसंकमकालोणाणाजीवविसेसिदो सव्वपयडीणं परूविदो । अणुकस्सट्ठिदिसंकमकालो पुण सव्वेसिं कम्माणं सव्वद्धा । आदेसपरूवणाए द्विदिविहत्तिभंगो अणूणाहियो काययो । * एत्तो जहएणयं । ६८५. सुगमं । 8 सव्वासि पयडीणं जहएणद्विदिसंकमो केवचिरं कालादो होदि ? जहएणेणेयसमो, उक्कस्सेण संखेजा समया । कालकी उत्पत्ति कहनी चाहिए। सूत्र में 'सव्वासिं पयडीणं' यह वचन आया है सो इससे सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके भी उत्कृष्ट स्थितिसंक्रमके उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण प्राप्त होने पर उसके प्रतिषेध द्वारा वहाँ विशेषका कथन करने के लिए इस सूत्रको कहते हैं * किन्तु इतनी विशेषता है कि सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके उत्कृष्ट स्थितिसंक्रमका काल कितना है ? जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है। ६८४. इसकी उत्पत्ति कैसे होती है ? कहते हैं-एकवार उपक्रम करनेवाले जीवोंके एक समयप्रमाण ही काल उपलब्ध होता है, इसलिए उस एक समयको स्थापितकर निरन्तर उपलब्ध होनेवाले आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण उपक्रमणवारोंसे गुणित करने पर उस कालकी प्राप्ति होती है। इस प्रकार ओघसे सब प्रकृतियोंका नाना जीवविषयक उत्कृष्ट स्थितिसंक्रमकाल कहा। किन्तु सब कर्माका अनुत्कृष्ट स्थितिसंक्रमकाल सर्वदा है। तथा आदेशसे कथन करने पर न्यूनाधिकतासे रहित स्थितिविभक्तिके समान भंग करना चाहिये। * अब आगे जघन्यका प्रकरण है। $ ६८५. यह सूत्र सुगम है। * सब प्रकृतियोंका जघन्य स्थितिसंक्रमकाल कितना है ? जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है। १. ता. प्रतौ -बिसेसपरूवणट्ठभुवरिमं इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001414
Book TitleKasaypahudam Part 08
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages442
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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