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________________ ३२४ जयधवलासहिदै कसायपाहुडे [बंधगो ६ ६६०. आदेसेण णेरइय० सोलसक०-पंचणोक०-चदुणोक० उक्क० ट्ठिदिसं० जह० एयसमओ, उक्क० अंतोमु० आवलिया । अणु० जह० एयस०, उक्क० तेत्तीसं सागरोवमाणि । सम्म०-सम्मामि० उक्क० हिदिसंका० जहण्णु० एयसमओ। अणुक्क० काल अन्तमुहूर्त बतलाया है। किन्तु स्त्रीवेद, पुरुषवेद, हास्य और रतिका उत्कृष्ट स्थितिके बन्धके समय बन्ध न होकर उत्कृष्ट स्थितिबन्धके रुक जानेके बाद ही इनका बन्ध होता है, इसलिये इनमें एक आवलिप्रमाण उत्कृष्ट स्थितिका ही संक्रम देखा जाता है, अतः इनके उत्कृष्ट स्थितिसंक्रामकका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त न प्राप्त होकर एक आवलिप्रमाण प्राप्त होता है । इसीसे इनकी उत्कृष्ट स्थितिके संक्रामकका उत्कृष्ट काल एक श्रावलिप्रमाण बतलाया है। मिथ्यात्व और सोलह कषायोंके अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है । इसीसे यहाँ इनकी अनुत्कृष्ट स्थितिके संक्रामकका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त बतलाया है। क्रोधादि कषायोंका एक एक समयके अन्तरसे उत्कृष्ट स्थितिबन्धका होना सम्भव है और जब क्रोधादि कषायोंका इस प्रकारसे बन्ध होता है तब नौ नोकषायोंका अनुत्कृष्ट स्थितिसंक्रम एक समयके लिये बन जाता है। इसीसे इनकी अनुत्कृष्ट स्थितिके संक्रामकका जघन्य काल एक समय बतलाया है। तथा इन सब प्रकृतियोंकी अनुत्कृष्ट स्थितिके संक्रामकका जो उत्कृष्ट काल असंख्यात पुद्गलपरिवर्तनप्रमाण बतलाया है सो वह एकेन्द्रियोंकी अपेक्षासे जान लेना चाहिये, क्योंकि जब कोई जीव इतने काल तक एकेन्द्रिय पर्यायमें रहता है तब उसके इतने काल तक न तो उत्कृष्ट स्थितिबन्ध पाया जाता है और न ही उत्कृष्ट स्थितिसंक्रम ही सम्भव है। अतः इन सब प्रकृतियोंकी अनुत्कृष्ट स्थितिके संक्रामकका उत्कृष्ट काल असंख्यात पुद्गलपरिवर्तनप्रमाण कहा है। जो जीव मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करके अन्तर्मुहूर्तमें वेदकसम्यकत्वको प्राप्त होता है उसके सम्यक्त्वको ग्रहण करनेके प्रथम समयमें सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थिति होकर दूसरे समयमें एक समय तक इस उत्कृष्ट स्थितिका संक्रम होता है । इसीसे यहाँ सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिके संक्रामकका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय बतलाया है। जो जीव सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी सत्ताको प्राप्त करके अन्तर्मुहूर्तमें उनकी क्षपणा कर देता है उसके इनकी अनुत्कृष्ट स्थितिके संक्रामकका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त पाया जाता है । तथा जो जीव सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके उद्वेलनाकालके अन्तिम समयमें सम्यक्त्वको प्राप्त होता है और छयासठ सागर काल तक सम्यक्त्वके साथ रह कर पुनः मिथ्यात्वमें जाकर उक्त दोनों प्रकृतियोंकी उद्वेलना करने लगता है। तथा अपनी अपनी उद्वेलनाके अन्तिम समयमें सम्यक्त्वको प्राप्त करके पुनः छयासठ सागर काल तक सम्यक्त्वके साथ रहता है। फिर अन्तमें मिथ्यात्वमें जाकर उक्त दोनों प्रकृतियोंकी उद्वेलना करता है उसके इनकी अनुत्कृष्ट स्थितिके संक्रामकका उत्कृष्ट काल साधिक दो छयासठ सागर पाया जाता है। इसीसे यहाँ इनकी उत्कृष्ट स्थितिके संक्रामकका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय तथा अनुत्कृष्ट स्थितिके संक्रामकका जघन्य काल एक अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल साधिक दो छयासठ सागर बतलाया है। ६६६०. आदेशसे नारकियों में मिथ्यात्व, सोलह कषाय, पाँच नोकषाय और चार नोकषायोंकी उत्कृष्ट स्थिति के संक्रामकका जघन्य काल एक समय तथा चार नोकषायोंके सिवा शेषका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त और चार नोकषायोंका उत्कृष्ट काल एक श्रावलि है । तथा इन सबकी अनुत्कृष्ट स्थितिके संक्रामकका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल तेतीस सागर है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिके संक्रामकका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है, तथा अनुत्कृष्ट स्थितिके संक्रामकका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल तेतीस सागर है । इसी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001414
Book TitleKasaypahudam Part 08
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages442
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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