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________________ ३२२ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [बंधगो ६ पञ्जत्तएसुप्पञ्जिय सव्वुक्कस्सपडिवक्खबंधगद्धं गालिय सगबंधपारंभादो आवलियचरिमसमए सामित्तं वत्तव्वं । . $ ६५५. पंचिंदियतिरिक्ख०३ मिच्छ०-बारसक०-भय-दुगुंछ० जह० द्विदिसं० कस्स ? अण्णद० बादरेइंदियपच्छायदस्स हदसमुप्पत्तियआवलियउववण्णल्लयस्स । सम्मत्त०-सम्मामि०-अणंताणु०४ णारयभंगो। सत्तणोक० जह० द्विदिसं० कस्स ? अण्णद० हदसमुप्पत्तियबादरेइंदियपच्छायदस्स अंतोमुहत्तववण्णल्लयस्स अप्पप्पणो कसायं बंघियणावलियादीदस्स । जोणिणीसु सम्म० सम्मामि०भंगो। पंचिंतिरिक्खअपजत्त-मणुसअपज० जोणिणीभंगो । णवरि अणंताणु०४ मिच्छ० भंगो।। ६५६. मणुस३ ओघं । णवरि मणुसिणीसु पुरिसवेद० छण्णोकसायभंगो। ६६५७. देवाणं णारयभंगो। एवं भवण-वाण । णवरि सम्म० सम्मामि०भंगो। जोदिसि० विदियपुढविभंगो। सोहम्मादि जाव णवगेवजा त्ति हिदिविहत्तिभंगो। णवरि सम्म०-सम्मामि०-अणंताणु०४ णारयभंगो। अणुद्दिसादि जाव सव्वट्ठा त्ति है कि संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यश्च पर्याप्तकोंमें उत्पन्न कराके और प्रतिपक्ष प्रकृतियोंके सर्वोत्कृष्ट बन्धकालको गला कर विवक्षित नोकषायके बन्धका प्रारम्भ करावे । फिर जब एक श्रावलि काल हो जाय तब उसके अन्तिम समयमें प्रकृत स्वामित्व कहना चाहिये। ६५५. पंचेन्द्रिय तिर्यश्चत्रिकमें मिथ्यात्व, बारह कषाय, भय और जुगुप्साका जघन्य स्थितिसंक्रम किसके होता है ? जो हतसमुत्पत्तिकक्रियाको करनेके साथ बादर एकेन्द्रिय पर्यायसे आकर यहाँ उत्पन्न हुआ है उसके यहाँ उत्पन्न होने पर एक प्रावलि कालके अन्तमें उक्त प्रकृतियोंका जघन्य स्थितिसंक्रम होता है। सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धीचतुष्कके जघन्य स्थितिसंक्रमका स्वामी नारकियोंके समान है। सात नोकषायोंका जघन्य स्थितिसंक्रम किसके होता है ? हतसमुत्पत्तिकक्रियाको करनेके साथ बादर एकेन्द्रिय पर्यायसे आकर यहां उत्पन्न हुए जिस अन्यतर जीवको एक अन्तर्मुहूर्त काल हो गया है उसके तदनन्तर विवक्षित नोकषायका बन्ध होनेके बाद एक आवलि कालके अन्तमें सात नोकषायोंका जघन्य स्थितिसंक्रम होता है । योनिनी तिर्यञ्चोंमें सम्यक्त्वका भंग सम्यग्मिथ्यात्वके समान है। पंचेन्द्रिय तिर्यश्च अपर्याप्त और मनुष्य अपर्याप्तकोंमें सब प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिसंक्रमका स्वामी योनिनी तिर्यश्चोंके समान है। किन्तु इतनी विशेषता है कि इनमें अनन्तानुबन्धीचतुष्कका भंग मिथ्यात्वके समान है। ६६५६. मनुष्यत्रिकमें सब प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिसंक्रमका स्वामी ओघके समान है। किन्तु इतनी विशेषता है कि मनुष्यनियों में पुरुषवेदका भंग छह नोकषायोंके समान है। ६६५७. देवोंमें सब प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिसंक्रमका स्वामी नारकियोंके समान है। इसी प्रकार भवनवासी और व्यन्तर देवोंके जानना चाहिये। किन्तु इतनी विशेषता है कि यहां सम्यक्त्वका भंग सम्यग्मिथ्यात्वके समान है। ज्योतिषियोंमें सब प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिसंक्रमका स्वामी दूसरी पृथिवीके समान है। सौधर्म कल्पसे लेकर नौ ग्रैवेयक तकके देवों में सब प्रकृतियोंका भंग स्थितिविभक्तिके समान है। किन्तु इतनी विशेषता है कि सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धीचतुष्कका भंग नारकियोंके समान है। अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें सब प्रकृतियोंका भंग स्थितिविभक्तिके समान है। किन्तु इतनी विशेषता है कि इनमें सम्यक्त्व Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001414
Book TitleKasaypahudam Part 08
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages442
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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