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________________ जयधवलास हिदे कसायपाहुडे ९ ६३८. अणंताणुबंधिविसंजोयणाए पयट्टस्स संकामयस्स पयदजहण्णसामित्तं होइ ति सुत्तत्थो । सेसं सुगमं । अट्टहं कसायाणं जहट्ठि दिसंकमो कस्स ? ९ ६३९. सुगमं । * खवयस्स तेसिं चेव अपच्छिमडिदिखंडयं चरिमसमयसंहमाणस्स जहण्णयं । ३१४ ९६४०. खवयस्स चैव तेसिं जहण्णसामित्तं होइ ति सुत्तत्थसंबंधो । सो च कदमाए अवत्थाए सामिओ होइ चि पुच्छिदे तदुद्देसजाणावणट्ठमिदं उत्तं- 'तेसिं चेव' इच्चादि । तेसिं चेव अकसायाणमपच्छिमे चरिमे द्विदिखंडए वट्टमाणो विवक्खियजहण्णट्ठिदिसंकमसामिओ होइ । तत्थ वि चरिमसमयसं छुहमाणओ चेव, हेट्ठा एगे - णिसेगेण सह दुचरिमादिफालीणमुवलंभेण जहण्णभावाणुप्पत्तीदो । तदो अंतोमुहुतमेतदुक्कीरणद्भागालणेण सामित्तविहाणं सुसंबद्धमिदि । [ बंधगो ६ चरिमट्ठिदिखंडयचरिमफालि * कोहसंजलणस्स जहरपट्ठिदिसंकमो कस्स ? $ ६४१. सुगमं । * खवयस्स . कोहसंजल एक्स अपच्छिमट्ठिदिबंधचरिमसमय संहमायरस तस्स जहण्ण्यं । ५ ६३८. अनन्तानुबन्धियोंकी विसंयोजनामें प्रवृत्त हुआ जो जीव अन्तिम स्थितिकाण्डकी अन्तिम फालिका संक्रम कर रहा है उसके प्रकृत जघन्य स्वामित्व होता है यह इस सूत्रका तात्पर्य है। शेष कथन सुगम है । $ * आठ कषायोंका जघन्य स्थितिसंक्रम किसके होता है ? $ ६३६. यह सूत्र सुगम है । * जो क्षपक जीव उन्हींके अन्तिम स्थितिकाण्डकका अन्तिम समयमें संक्रम कर रहा है उसके आठ कषायोंका जघन्य स्थितिसंक्रम होता है । ६ ६४०. क्षपक जीवके ही उन प्रकृतियोंका जघन्य स्वामित्व होता है यह इस सूत्र का तात्पर्य है । किन्तु वह क्षपक जीव किस अवस्थामें स्वामी होता है ऐसी पृच्छा होने पर स्वामित्वविषयक स्थानका ज्ञान करानेके लिये 'तेसिं चेव' इत्यादि सूत्रवाक्य कहा है । आशय यह है कि जो उन्हीं आठ कषायों के अन्तिम स्थितिकाण्डकमें विद्यमान है वह विवक्षित जघन्य स्थितिसंक्रमका स्वामी होता है । उसमें भी अन्तिम समयमें संक्रम करनेवाला जीव उसका स्वामी होता है, क्योंकि इससे नीचे एक एक निषेकके साथ द्विचरम आदि फालियोंकी प्राप्ति होनेसे वहाँ जघन्य स्थितिसंक्रमका प्राप्त होना सम्भव नहीं है । इसलिये अन्तर्मुहूर्तप्रमाण उत्कीरण कालको गलानेके बाद स्वामित्वका विधान करना सम्बद्ध है । * क्रोधसंज्वलनका जघन्य स्थितिसंक्रम किसके होता है ? ६ ६४१. यह सूत्र सुगम है । * जो क्षपक जीव क्रोधसंज्वलनके अन्तिम स्थितिबन्धका अन्तिम समय में संक्रम कर रहा है उसके क्रोधसंज्वलनका जघन्य स्थितिसंक्रम होता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001414
Book TitleKasaypahudam Part 08
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages442
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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