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________________ २८२ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [बंधगो ६ ५७१. जहण्णए पयदं । दुविहो णिद्देसो--ओघेण आदेसेण य । ओघेण मोह० जह० अज० खेत्तभंगो । आदेसेण णेरइय० जह० खेत्तं । अज० छचोदस० । पढमाए खेत्तं । विदियादि जाव सत्तमा ति जह० खेत्तं । अज० सगपोसणं। तिरि० जह० अज० खेत्तं । सव्वपंचिंदियतिरिक्ख-सव्वमणुस० जह० लोग. असंखे०भागो। अज० लो० असं०भागो सव्वलोगो वा । देवेसु जह० खेत्तं । अज० लोग० असंखे०भागो अट्ठ-णवचोद्द० देसूणा । एवं सोहम्मीसाणे । भवण-वाण-जोदिसि० जह० खेत्तं । अज० अणु० भंगो । सणक्कुमारादि जाव अच्चुदा त्ति एवं चेव । उवरि खेत्तं । एवं जाव० । स्थितिवाले द्रव्यलिंगी मुनि उत्पन्न होते हैं उन्हीं देवोंके प्रथम समयमें उत्कृष्ट स्थितिका संक्रम पाया जाता है। पर ऐसे देव संख्यात ही होते हैं, अतः इनका वर्तमानकालीन व अतीतकालीन स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण प्राप्त होता है। इसीसे यहाँ इन चार कल्पोंमें उत्कृष्ट स्थितिके संक्रामकोंका स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण बतलाया है। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक यथायोग्य स्पर्शन जानना चाहिये। _ ५७१. जघन्यका प्रकरण है । निर्देश दो प्रकारका है-ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश । ओघसे मोहनीयकी जघन्य और अजघन्य स्थितिके संक्रामकोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। आदेशसे नारकियोंमें जघन्य स्थितिके संक्रामकोंका स्पर्शन क्षेत्र के समान है। तथा अजघन्य स्थितिके संक्रामकोंने बसनालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम छह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। पहली पृथिवीमें स्पर्शन क्षेत्र के समान है। दूसरीसे लेकर सातवीं पृथिवी तकके नारकियोंमें जघन्य स्थितिके संक्रामकोंका सर्शन क्षेत्र समान है। तथा अजघन्य स्थितिके संक्रामकोंका स्पर्शन अपने अपने नरकके स्पर्शनके समान है। तिर्यचोंमें जघन्य और अजघन्य स्थितिके संक्रामकोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। सब पंचेन्द्रिय तियेच और सब मनुष्योंमें जघन्य स्थितिके संक्रामकोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । अजघन्य स्थितिके संक्रामकोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रका और सब लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। देवोंमें जघन्य स्थितिके संक्रामकोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। अजघन्य स्थितिके संक्रामकोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रका और त्रसनालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम आठ व कुछ कम नौ भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। इसी प्रकार सौधर्म और ऐशान कल्पमें जानना चाहिये । भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिषी देवोंमें जघन्य स्थितिके संक्रामकोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। अजघन्य स्थितिके संक्रामकोंका स्पर्शन अनुत्कृष्ट स्थितिके संकामकों के स्पर्शनके समान है। सनत्कुमारसे लेकर अच्युत कल्प तकके देवोंमें इसी प्रकार स्पर्शन जानना चाहिये। इससे आगेके देवोंमें स्पर्शन क्षेत्रके समान है। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए। विशेषार्थ-मोहनीयकी जघन्य स्थितिके संक्रामकोंका क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और अजघन्य स्थितिके संक्रामकोंका क्षेत्र सब लोक बतलाया है। इनका स्पर्शन भी इतना ही है । अत: इनके स्पर्शनको क्षेत्रके समान कहा है। सामान्यसे नारकियोंमें मोहनीयकी जघन्य स्थितिके संक्रामकोका क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण बतलाया है. स्पर्शन भी इतना ही प्राप्र होता है क्योंकि जो अपने योग्य जघन्य स्थितिवाले असंज्ञी जीव नरकमें उत्पन्न होते हैं उन्हीं नारकियोंके जघन्य स्थितिसंक्रम पाया जाता है। किन्तु असंज्ञी जीव प्रथम नरकमें ही उत्पन्न होते हैं और प्रथम नरकका स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागसे अधिक नहीं है, अतः सामान्यसे नारकियोंमें जघन्य स्थितिके संक्रामकोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान बतलाया है । अजघन्य स्थितिके संक्रामक नारकियोंमें Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001414
Book TitleKasaypahudam Part 08
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages442
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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