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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[बंधगो६ ५६०. जहण्णए पयदं। तहा चेव अट्ठपदं । दुविहो णिद्देसो-ओघेण आदेसेण य । ओघेण मोह० जह० द्विदिसं० भयणिज्जा । पुणो अज० धुवं काऊण तिण्णि भंगा'। एवं चदुगदीसु । णवरि तिरिक्खेसु जह० अज० णियमा अस्थि । मणुसअपज्ज० जह० अज० संका० भयणिज्जा। पुणो भंगा' अट्ठ ८ । एवं जाव० ।
मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थितिके संक्रामक होते हैं। (३) कदाचित् एक जीव मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थितिका असंक्रामक होता है । (४) कदाचित् नाना जीव मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थितिके असंक्रामक होते हैं । (५) कदाचित् एक जीव मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थितिका संक्रामक और एक जीव असंक्रामक होता है । (६) कदाचित् एक जीव मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थितिका संक्रामक और नाना जीव असंक्रामक होते हैं। (७) कदाचित् नाना जीव मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थितिके संक्रामक
और एक जीव असंक्रामक होता है। (८) कदाचित् नाना जीव मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थितिके संक्रामक और नाना जीव असंक्रामक होते हैं। ये उत्कृष्ट स्थितिके संक्रामकों और असंक्रामकोंकी अपेक्षासे आठ भंग कहे हैं । इसी प्रकार अनुत्कृष्ट स्थितिके संक्रामकों और असंक्रामकोंकी अपेक्षासे भी आठ भंग कहने चाहिये। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक यथायोग्य भंग ले आना चाहिये।
६५६०. अब जघन्यका प्रकरण है। अर्थपद पूर्वोक्त प्रकार है। निर्देश दो प्रकारका हैओघनिर्देश और आदेशनिर्देश । ओघसे मोहनीयकी जघन्य स्थितिके संक्रामक जीव भजनीय हैं। फिर अजघन्य स्थितिके संक्रामकोंको ध्रुव करके तीन भंग होते हैं । इसी प्रकार चारों गतियोंमें जान लेना चाहिये । किन्तु इतनी विशेषता है कि तिर्यञ्चोंमें जघन्य स्थितिके संक्रमवाले और अजघन्य स्थितिके संक्रमवाले जीव नियमसे हैं। मनुष्य अपर्याप्तकोंमें जघन्य और अजघन्य स्थितिके संक्रमवाले भजनीय हैं । आठ भंग होते हैं । इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिये।
विशेषार्थ-ओघसे मोहनीयकी जघन्य स्थितिका संक्रम क्षपणश्रेणिमें होता है। किन्तु क्षपकश्रेणिमें एक तो सदा जीवोंका पाया जाना सम्भव नहीं है। यदि पाये भी जाते हैं तो कदाचित् एक जीव पाया जाता है और कदाचित् नाना जीव पाये जाते हैं। इसीसे मोहनीयकी जघन्य स्थितिके संक्रामकोंको भजनीय कहा है। यहाँ एक जीव और नाना जीवोंकी अपेक्षा तीन भंग होंगे। भंगोंका क्रम वही है जिसका उल्लेख उत्कृष्टकी अपेक्षा तीन भंग बतलाते समय कर आये हैं। किन्तु अजघन्य स्थितिके संक्रामक जीव नियमसे पाये जाते हैं, अतः इस अपेक्षासे तीन भंग होते हैं-(१) कदाचित् अजघन्य स्थितिके संक्रामक सब जीव होते हैं। (२) कदाचित् बहुत जीव अजघन्य स्थितिके संक्रामक और एक जीव असंक्रामक होता है। (३) कदाचित् बहुत जीव अजघन्य स्थितिके संक्रामक और बहुत जीव असंक्रामक होते हैं। यह ओघ प्ररूपणा चारों गतियोंमें बन जाती है, इसलिये चारों गतियोंके कथनको ओघके समान कहा है । किन्तु तिर्यश्चगति इसका अपवाद है । बात यह है कि तिर्यश्चगतिमें जघन्य स्थिति और अजघन्य स्थितिके संक्रामक नाना जीव सदा पाये जाते हैं । इसलिये वहाँका कथन भिन्न प्रकारका है। मनुष्य अपर्याप्तक सान्तर मार्गणा होनेसे वहाँ जिस प्रकार उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिसंक्रामकोंकी अपेक्षा आठ-आठ भंग कहे हैं उसी प्रकार यहाँ भी जानना चाहिये । इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक अपनी-अपनी विशेषताको जानकर भंगोंका कथन करना चाहिये ।
इस प्रकार भंगविचयानुगम समाप्त हुआ।
१. ता० -प्रा०प्रत्योः पुणो अज० धुवं भंगा इति पाठः।
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